वेदान्त का अनुबन्ध चतुष्टय

!! वेदान्त-बोध !!

प्रबोधक :
अनन्तश्री स्वामी अखण्डानन्द सरस्वतीजी महाराज

प्रथम खण्ड – अधिकारी निरूपण

अध्याय 1 -> मनुष्य-जीवनमें मुमुक्षा दुर्लभ है

अध्याय 2 -> मुमुक्षा को पूर्तिका उपाय – ब्रह्मविचार

अध्याय 3 -> ब्रह्म विचार की सामग्री

अध्याय 4 -> वेदान्त का अनुबन्ध चतुष्टय

किसी भी ग्रन्थका तात्पर्य समझने के लिए उसके अनुबन्ध-चतुष्टयको जानना परम आवश्यक होता है। अधिकारी, विषय, प्रयोजन और सम्बन्धको अनुबन्ध-चतुष्टयके नामसे जाना जाता है। उपनिषदोंका (वेदान्तका) अधिकारी कौन है, उसका क्या विषय है, औपनिषद-विद्याका क्या प्रयोजन है तथा ग्रन्थका उस विद्याके साथ क्या सम्बन्ध है – इन्हीं चार अनुबन्धोंका विवेचन यहाँ इष्ट है।

१. अधिकारी

यों तो प्रत्येक मनुष्य वेदान्त-विद्याका अधिकारी है तथापि परम्परा साधनों (धर्म, उपासना, योग) और बहिरंग साधनों (विवेक, वैराग्य, षट्सम्पत्ति और मुमुक्षा) से जिसका अन्तःकरण शुद्ध हो गया है वह वेदान्त-विद्याका मुख्य अधिकारी है। इसमें न स्त्री-पुरुषका लिंग-भेद है, न ब्राह्मण, क्षत्रियादिका वर्ण-भेद है और न संन्यास-गृहस्थादिका आश्रम-भेद है। इसमें धनी-गरीब या पठित-अपठितका भेद भी नहीं है।

जो कोई भी मनुष्य वेदान्त-विद्याके फल मोक्षको चाहता है; जिसने धर्म और निष्काम कर्मयोगके द्वारा कामना मलका त्याग कर दिया है ( या त्यागनेको इच्छुक है); जिसने उपासनासे अपनी वासनाएँ शुद्ध कर ली हैं अथवा योगके साधनोंसे वृत्तिका विक्षेप दूर कर लिया है; जो नित्या-नित्यका विवेक करके अनित्यसे वैराग्यको प्राप्त हो गया है; जो वैराग्यके परिपाक षट्-सम्पत्तियोंसे धनी होकर मोक्ष प्राप्तिके लिए गुरु-मुखसे श्रवण करनेको तत्पर है; जिनमें ये सब अथवा कुछ योग्यताएँ न्यूनाधिक मात्रा में उपस्थित हों, वे सब वेदान्त-विद्याके अधिकारी हैं।

रुचि और सामर्थ्य मिलकर अधिकारकी रचना करते हैं। ऐसे बहुत लोग हैं जो बुद्धिके बहुत तेज हैं- जैसे वकील, बैरिस्टर, वैज्ञानिक, परन्तु उनको मोक्षमें कोई रुचि नहीं है। और ऐसे बहुत-से श्रद्धालु मनुष्य हैं जो सुन-सुनाकर मोक्ष चाहते तो हैं परन्तु जिनमें न विवेकका सामर्थ्य है और न त्यागका । ये दोनों प्रकारके लोग वेदान्तके सही अधिकारी नहीं हैं। हमारे मीमांसकोंने कर्मके अधिकारके सम्बन्ध में कहा-अर्थी समर्थो विद्वान् शास्त्रेण अविपर्युदस्तः । किसी कर्मका कोई व्यक्ति अधिकारी है या नहीं उसका निर्णय करनेके लिए यह देखो कि (१) वह उस कर्मको और उसके फलको चाहता है या नहीं; (२) उस कर्मको करनेका सामर्थ्य उसमें है या नहीं; (३) उस कर्मके विज्ञानको वह समझता है या नहीं: और (४) शास्त्रके द्वारा उस व्यक्तिके लिए उस कर्मका निषेध तो नहीं है ? यदि वह ‘अर्थी’ है (चाहता है), समर्थी है (सामर्थ्यवान् है), विद्वान् है और उसके लिए शास्त्रका निषेध नहीं है तो वह व्यक्ति उस कर्मका अधिकारी है। परन्तु ज्ञानके प्रसंगमें अर्थी और समर्थी होना ही पर्याप्त है। मोक्षको चाहता हो और विवेक-वैराग्यरूपी सामर्थ्य उसके पास हो । ( विशेष : देखिये अध्याय ३)।

२. विषय

सभी वेदान्तोंका प्रतिपाद्य विषय आत्मा और ब्रह्मकी स्वतःसिद्ध एकताका ज्ञान है। इसके लिए उपनिषदोंमें दो प्रकारके वाक्य पाये जाते हैं : (१) वे वाक्य जिनमें आत्माके और ब्रह्मके स्वरूपका अलग-अलग वर्णन किया गया है। इन वाक्योंको वेदान्तशास्त्रमें अवान्तर वाक्य कहते हैं। (२) वे वाक्य जिनमें आत्मा और ब्रह्मकी एकताका वर्णन किया है; ये महावाक्य कहलाते हैं। देहसम्बन्धी या साधन-फलसम्बन्धी या सृष्टिको उत्पत्ति-स्थिति-भंगसम्बन्धी जितने उपविषद्-वाक्य हैं, वे सब अवान्तर वाक्योंकी श्रेणी में ही हैं क्योंकि उनका उद्देश्य आत्मा (त्वं-पदार्थ) या ईश्वर-ब्रह्म (तत्पदार्थ) के शोधनमें ही है। अवान्तर वाक्य महवाक्योंकी सिद्धिके लिए उपयोगी हैं।

वेदोंमें जो कर्म-विभाग है उससे सम्बन्धी वाक्योंकी मीमांसा जैमिनिकृत पूर्वमीमांसा-शास्त्रमें की गयी है। उसमें शासन और अनुशासन’ है तथा उसके पालनके पुरस्कार और अवहेलनाके दण्डकी व्यवस्था है। उसका उद्देश्य जीवनमें धर्म और उपासनाकी स्थापना है। अतः कर्मोपासना-सम्बन्धी वाक्य अवान्तर वाक्यकी श्रेणीमें ही हैं।

१. शांसनात् शास्त्रम् ।
वेदोंके ज्ञान-काण्डका नाम उपनिषद् है। ज्ञान-सम्बन्धी वाक्योंकी मीमांसा व्यासकृत उत्तरमीमांसा-शास्त्र में है जिसको वेदान्त-दर्शन भी कहते हैं। इसमें सत्य वस्तुका ‘शंसन’ है, ज्ञान है। ज्ञान भी दो प्रकारका होता है : वृत्ति-ज्ञान और सिद्ध-ज्ञान। वृत्तिज्ञान अज्ञानका निवर्तक होता है, तथा सिद्ध-ज्ञानमें प्रवर्तक-निवर्तक भाव नहीं होता । तो महावाक्य-जन्य जो ज्ञान है वह आत्मा और ब्रह्मके भेद-ज्ञानरूप अज्ञानका निवर्तक है और अज्ञान-निवृत्तिके अनन्तर आत्माका जो सहजसिद्ध ज्ञान है वही मोक्ष है। मोक्ष सबका फल है। मोक्षका कोई दूसरा फल नहीं है।

३. प्रयोजन

उपनिषदोंका प्रयोजन है मोक्षकी सिद्धि । आत्मा ब्रह्म नहीं है, यह ज्ञान अज्ञान है। इसीके कारण “मैं कर्ता-भोक्ता-संसारी-परिच्छिन्न जीव हूँ” यह भ्रम होता है। इस भ्रमकी निवृत्ति अज्ञान-निवृत्तिसे होती है और अज्ञानकी निवृत्ति ब्रह्मात्मैक्य-बोधसे होती है। उक्त अज्ञान-निवृत्तिके अनन्तर जो ब्रह्मस्वरूप आत्मा है उसका नाम मोक्ष है। इस मोक्षकी सिद्धि होनेपर सम्पूर्ण अनर्थोंकी निवृत्ति होकर परमानन्दकी प्राप्ति होती है। यही परमात्माकी प्राप्ति, ईश्वरप्राप्ति, भगवत्प्राप्ति, आत्मसाक्षात्कार इत्यादि नामोसे कहा जाता है। यही वेदान्त-शास्त्रका प्रयोजन है।

४. सम्बन्ध

मोक्ष या परमात्माकी प्राप्ति होती है ब्रह्मात्मैक्य-बोधिनी विद्यासे और यह विद्या है उपनिषदोंका विषय । अतः उपनिषद् और मोक्षका (ब्रह्मका) प्रतिपादक-प्रतिपाद्य सम्बन्ध है।

परमात्माकी प्राप्ति ब्रह्मज्ञानसे और ब्रह्मज्ञान उपनिषदोंसे । अतः परमात्मा की प्राप्तिमें उपनिषद् (वेदान्त) परम्परा-साधन हैं। असल में ब्रह्मविद्या किसी ग्रन्थ, श्लोक या वाक्यमें नहीं रहती; वह तो बुद्धिमें रहती है। परन्तु ग्रन्थादिसे उदित होनेके कारण ब्रह्मविद्यामें ग्रन्थ परम्परासे साधन माने जाते हैं।

ब्रह्मज्ञानके बिना अनर्थकी निवृत्ति नहीं हो सकती। एक उस परमात्माको जानकर ही जीव मृत्युका अतिक्रमण करता है; परमात्माके ज्ञानसे ही,

२. शास्त्रत्वं शंसनादपि ।

और किसीके ज्ञानसे नहीं; तथा ज्ञानसे ही, कर्म-उपासना आदि किसी अन्य साधनसे नहीं; यह बात साफ शब्दोंमें उपनिषद्ने कही कि इसके अतिरिक्त अन्य कोई दूसरा मार्ग ही नहीं है-

तमेव विदित्वातिमृत्युमेति नान्यः पन्था विद्यतेऽयनाय ।।

(श्वेता० ३.८)

कोई चर्मकी भाँति समस्त आकाशको लपेट ले, यह तो सम्भव हो सकता है, परन्तु उस परमात्मदेवको जाने विना दुःखका अन्त हो जाय, यह सम्भव नहीं है। उस परमात्मदेवको जानकर सब पाशोंसे मुक्ति होती है। वेदान्तका यह भेरी घोष है कि ज्ञानसे ही कैवल्यकी प्राप्ति होती है।” ब्रह्मज्ञान उपनिषद्-शास्त्रसे हो होता है, दूसरेके द्वारा नहीं।”

५. अनुबन्ध-विषयक कुछ शंका-समाधान

१ शंका-वेदान्त-विद्याका विचार, पठन, पाठन सब बेकार है। क्योंकि (१) मोक्ष चाहनेवाला कोई साधन-चतुष्टय-सम्पन्न अधिकारी संसारमें है हो नहीं। लोग अनर्थसे निवृत्ति तो चाहते हैं परन्तु ब्रह्मज्ञान द्वारा निवृत्ति नहीं चाहते। कर्मसे, उपासनासे अथवा योगसे अनर्थोकी निवृत्ति होती ही है और उसमें कर्ता-भोक्ता जो जीव है वह भी बना रहता है; जबकि ब्रह्मज्ञानमें जीव ही नष्ट हो जाता है। (२) लोग परमान द चाहते हैं परन्तु वे उसको भी विषयवत् ही चाहते हैं। किन्तु ब्रह्मज्ञानका जो परमानन्द है उसमें कोई विषय ही नहीं है। (३) अनुभूत सुखकी इच्छा तो सब करते हैं किन्तु अननुभूत ब्रह्म-सुखकी इच्छा कोई नहीं कर सकता । अत मोक्षेच्छा ही किसी में उदय नहीं हो सकती। (४) यदि यह मान भी लें कि कोई वास्तवमें मुमुक्षु है भी तो उसमें साधन-चतुष्टयका होना अत्यन्त कठिन है। इस प्रकार जब वेदान्त-विद्याका कोई अधिकारी ही नहीं तो उस विद्याका व्याख्यान भी निरर्थक है।

३. या चर्मवदाकाशं वेष्टयिष्यन्ति मानवाः ।

तदा देवमविज्ञाय दुःखस्यान्तो भविष्यति ।। (श्वेता० ५.२०)

४. ज्ञात्वा देवं मुच्यते सर्वपाशैः (श्वेता० १.८) ।

५. ज्ञानादेव तु कैवल्यम् इति वेदान्त डिण्डिमः ।

६. शास्त्रादिनैव जन्यम् ।

समाधान :- अनर्थ क्या है? जो असत् है, जड़ है और दुःखरूप है

वही अनर्थ है। अर्थ तो केवल एक आत्मवस्तु है। इसलिए जबतक आत्मवस्तुकी परिपूर्ण ब्रह्म के रूपमें बोधरूप उपलब्धि नहीं होगी तबतक अनर्थका बीज नष्ट नहीं हो सकता। आत्माको ब्रह्मरूपमें न जानना ही सब अनर्थोंका बीज है। वह केवल वेदान्तविद्यासे ही निवृत्त हो सकता है। कर्म, उपासना और योगसे तो दुःखोंकी तात्कालिक निवृत्ति होती है क्योंकि अनुभव बताता है कि कर्मजन्य कोई अवस्था चिरकालीन नहीं हो सकती । या फिर वृत्तिमें उपसनाके काल्पनिक सुख द्वारा दुःखको प्रतिस्थापित किया जाता है; अथवा योगके द्वारा दुःखको ग्रहण करनेवाली वृत्तिमात्रका ही निरोधकर दिया जाता है। परन्तु ये सब कालमें टूटनेवाली अवस्थाएँ हैं, अतः दुःख निर्मूल नहीं हो सकता। फिर न तो दुःख और उसके हेतुओंकी सत्ता या महत्त्वका निषेध ही होता है और न सुखके निवास-स्थान (आत्मा) का ही विवेक होता है। यदि सांख्य-विवेकसे यह (सुखकी आत्मनिष्ठता) सिद्ध भी हो जाय तो भी जबतक आत्माकी अर्पार-च्छिन्नताका बोध नहीं होता और प्रकृतिके मिथ्यात्वका निश्चय नहीं होता तबतक उक्त आत्मसुख भी काल-बाधित ही रहेगा। और यही तो वेदान्त है !

विषयमें यदि सुख होता तब तो पृथक् भोक्ताकी आवश्यकता होती । विषयोंमें जो सुखका भान होता है वह तो अज्ञानजन्य भ्रमसे है। आत्माका सुख ही कामनावासित हृदयमें कामनाके विषयके साथ सम्पर्क होनेपर वृत्तिस्थ विषयमें भासने लगता है और अज्ञानसे सम्मुखस्थ विषयमें आरोपित कर दिया जाता है। असलमें तो विषयी अपना सुख ही ‘भोगता’ है। आत्म-सुखका वृत्तिमें प्रतिबिम्बन तथा उसका ज्ञान – यहो वृत्तिजन्य सुख है। वह जाग्रत-स्वप्नकी अवस्थाओंमें विषयके माध्यमसे भी हो सकता है, समाधि-अवस्था में शान्त-वृत्तिके माध्यमसे भी हो सकता है ओर सुषुप्ति-अवस्थामें विषयाभावसे भी हो सकता है। आत्मा सुखस्वरूप है, इस ज्ञानका नाम ही परमानन्द है, क्योंकि इस ज्ञानके उदयसे सब सुख आत्मानन्द हो जाते हैं।

लोग विषय-सुख ही चाहते हैं, यह कहना ठीक नहीं है। क्योंकि वास्तवमें लोग सुखमात्र चाहते हैं अन्यथा औषध लेकर भी वे सुषुप्ति-सुखकी, जिसमें विषय-रहित सुख है, इच्छा न करते ! क्योंकि लोग मात्र सुख चाहते हैं और विषय-सुख उनको अनुभूत है, इसलिए उपनिषदोंसे सजातीय ब्रह्मसुखके बारेमें सुनकर उनको ब्रह्मसुख अर्थात् परमानन्दरूप मोक्षकी इच्छा हो सकती है। सब चाहते हैं कि हमें अविनाशी सुख मिलें, सर्वत्र सुख मिले, सबसे सुख मिले, बिना श्रम किये सुख मिले और ज्ञात होता हुआ सुख मिले। भले वह विषयसे मिले या निविषयक मिले ! ऐसे विलक्षण सुखका नाम हो तो ब्रह्मसुख या परमानन्द या मोक्ष-सुख है ! इसलिए प्रत्येक मनुष्य असल में चाहता तो मोक्ष-सुख ही है किन्तु अज्ञानसे वह विनाशी, परिच्छिन्न और अपनेसे भिन्न विषयों में ढूँढ़ता है। इस प्रकार वेदान्तको दृष्टिसे सब मनुष्य मुमुक्षु हैं चाहे उन्हें इसका ज्ञान हो या न हो।

रही बात साधन-चतुष्टयसम्पन्न मुमुक्षुकी, सो यह ठीक है कि ऐसे मुमुक्षुओंकी संख्या थोड़ी है, परन्तु उनका अभाव नहीं है। संसारमें चार प्रकारके मनुष्य होते हैं : विषयी, पामर, जिज्ञासु और मुक्त । इनमें विषयी वे लोग हैं जो शास्त्र के अनुसार इस लोक और परलोकके सुख-भोगोंको भोगते हुए शास्त्रानुसार धर्ममें बरतते रहते हैं। ये लोग वेदान्तके फलमें रुचि नहीं लेते, अतः वे वेदान्तके अधिकारी नहीं हैं। पामर वे लोग हैं जो संसारके भोगों में ही मस्त हैं, भले वे शास्त्रज्ञ हों या न हों। ये लोग भी वेदान्तके अधिकारी नहीं हैं क्योंकि इनमें सामर्थ्य नहीं है। मुक्त पुरुषोंका मोक्षरूपी प्रयोजन सिद्ध हो चुका है इसलिए उनके अधिकार-अनधिकारका प्रश्न ही नहीं है। अब बचे जिज्ञासु, वे हो वेदान्त-विद्या के अधिकारी हैं।

जिज्ञासुकी विषय-सुखमें अलं-बुद्धि नहीं होती। उन्हें तो परिणाममें, भोगमें और अर्जनमें सारे सुख भी दुःख ही नजर आते हैं। उनकी दृष्टिमें शरीर पूर्वकृत धर्माधर्मका फल है। रागद्वेषकी निवृत्तिके बिना धर्माधर्मजन्य आवागमनका चक्र समाप्त नहीं हो सकता। राग-द्वेषका आधार भेद-ज्ञान और अपनेमें कर्तृत्व-भोक्तृत्व है । इसलिए ब्रह्मात्मैत्र्य बोधके बिना राग-द्वेषकी अत्यन्तिक निवृत्ति नहीं हो सकती। क्योंकि भेद और कर्तापन-भोक्तापनकी भ्रान्ति अपनी आत्माके ब्रह्मत्वके अज्ञानसे ही होती है, अतः जिज्ञासुओंकी प्रवृत्ति वेदान्त-विद्या में अवश्य होती है, इसलिये विद्याका व्याख्यान (ब्रह्म-विचार) सार्थक है।

२. शंका-ब्रह्म-विद्याका प्रयोजन मोक्षकी सिद्धि है और वह ब्रह्मात्मैक्य-बोधसे होती है। ठीक है, परन्तु वह मोक्ष नित्य है या अनित्य ?
यदि अनित्य है तो अनित्यसे तो वैराग्य होना चाहिए; अनित्य मोक्षकी आवश्यकता ही नहीं। यदि मोक्ष नित्य है तो वह साधनजन्य नहीं होगा क्योंकि नित्य वस्तुको प्राप्त करनेके लिए साधनकी आवश्यकता नहीं होती; उस दशामें शास्त्र-विहित सब साधन आवश्यक सिद्ध होंगे। यदि कहो कि ब्रह्मज्ञानकी तो सार्थकता है ही, तो यह तभी संभव है जब बन्धन अज्ञानसे सिद्ध हो। परन्तु आत्मा जब ब्रह्म ही है तब उसमें अज्ञान और तज्जन्य भ्रमकी उपस्थापना हास्यास्पद है। असलमें आत्मा ब्रह्म नहीं है, जैसा प्रत्येक व्यक्तिका सहज अनुभव भी है और जैसा शास्त्रमें दोनोंका भेद बताया भी गया है। जीव अल्पज्ञ, परिच्छिन्न, संसारी है और ब्रह्म सर्वज्ञ, अपरिच्छिन्न, सर्वशक्तिमान् है। बन्धन भी प्रत्येक जीवका सहज अनुभव है। अतः बन्धन सत्य है, और बन्धनकी निवृत्ति ज्ञानसे नहीं हो सकती, वह कर्म-उपासना-योगको अपेक्षा रखता है। अतः ब्रह्मविद्याका विचार निरर्थक है।

समाधान – मोक्ष नित्य है; फिर भो इसके लिए जो साधन शास्त्र में णित हैं वे व्यर्थ नहीं हैं। मोक्ष आत्माका अपना स्वरूप ही है, अन्य नहीं है। हम कहीं बँधे नहीं हैं। बन्धन एक कल्पना है, भ्रम है। विचार करके देखो कि बचपनसे अबतक हम कितनोंके साथ बँधे और छूटे ।

धनके साथ बँधे, वह चला. गया। स्त्री, पुत्र, मित्र सबके साथ अपनेको बँधा समझते रहे किन्तु सब बदलता गया। इनके आनेपर बन्धनका भ्रम होता है, पर ज्यों-के-त्यों हैं। हमें कोई बाँध नहीं सकता । सपनोंके समान ये आते-जाते रहते हैं और मोक्ष अपना सहज स्वरूप है। अपने स्वरूपभूत मोक्षकी प्राप्तिमें जो प्रतिबन्ध हैं- बन्धनका भ्रम है, उसे दूर करनेके लिए साधनकी आवश्यकता और इसलिए शास्त्रकी सार्थकता है। मोक्षको उत्पन्न करनेके लिए साधनकी आवश्यकता नहीं है अन्यथा मोक्ष भी निश्चित अनित्य ही होगा। भगवान् शंकराचार्य कहते हैं – रोगार्तस्येव रोगनिवृत्तौ स्वस्थता । स्वास्थ्य हमारा स्वरूप है किन्तु सर्दी-गर्मीसे, बात-पित्त-कफ़ के प्रकोपसे या और किसी कारणसे शरीरमें रोग आगया तो उसके निवारणके लिए औषध-सेवन कर लेते हैं। स्वस्थ तो हम रोगसे पहिले भी थे और रोर्गानवृत्तिके बाद भी रहेंगे। इसी प्रकार मोक्ष अपना स्वरूप है। उसमें जो बन्धनका भ्रम आगया है उसे दूर करनेके लिए ब्रह्मज्ञानकी आवश्यकता है। ब्रह्मज्ञानके लिए ब्रह्मविचारकी आवश्यकता है और शास्त्र ब्रह्मविचार-रूप है, अतः श एत्रकी आवश्यकता है। शास्त्रमें वणित सभी साधन परस्पर ब्रह्मज्ञानमें सहकारी हैं, यह वर्णन पहिले साधन-विचारमें कर चुके हैं।

सीधा प्रश्न है- ‘तुम दुःखी हो या नहीं? यदि तुम अपनेको दुःखी नहीं समझते तो तुम्हारे लिए किसी साधनकी आवश्यकता नहीं है। स्वस्थ पुरुपके लिए कोई दवा नहीं है। दवाकी आवश्यकता रोगीके लिए है। यदि तुम्हें लगता है कि ‘मैं दुःखी हूँ’ तो दुःखमें तो किसीका राग नहीं होता। तब तुम दुःख-निवृत्तिका साधन करो। हमको सुख हो, दुःख हमको कभी न हो, यह सबकी भावना है।

दूसरेके विषय में कोई बात जाननी हो तो जैसा लिखा होगा या जैसा कोई कहेगा वैसा मानना पड़ेगा। किन्तु अपने विषय में जानना हो तो स्वानुभव ही प्रमाण होगा। अतः अब सोचो कि कहीं लिखा है कि तुम दुःखी हो, इसलिए अपनेको दुःखी मानते हो या अपने दुःखीपनेके तुम स्वयं साक्षी हो ? निष्कर्ष यही निकलेगा-तुम इसलिए दुःखी हो क्योंकि तुम अपने दुःखी होनेके स्वयं साक्षी हो। परन्तु नियम यह है कि जो जिसका साक्षी होता है वह उसके (साक्ष्यके) गुण-धर्मसे भिन्न होता है। तब जो तुम दुःखीपनेके साक्षी हो वह तुम दुःखी कैसे हो सकते हो ?

विकारके बिना कोई दुःख नहीं होता। विकार – अर्थात् सड़न, एकसे दूसरेमें परिवर्तन । हमारी जो वस्तु जैसी थी वैसी नहीं रही, इसीसे तो हम दुःखी हुए न ! जो परिवर्तनशील है वह साक्षी नहीं है और साक्षीमें विकार या परिवर्तन नहीं है। बुद्धि दिनमें सहस्र-सहस्र रूप बदलती है। यह प्रिय-अप्रिय, सुख-दुःख, मेरा-तेरा आदि रूपों में बदलती रहती है। बुद्धिके इन सहस्र-सहस्र रूपोंका मैं साक्षी हूँ। अतः मैं निर्विकार हूँ। किन्तु निर्विकारमें तो दुःख होता ही नहीं तब यह दुःख कहाँसे आया ? यह भूलसे, नासमझीसे, अज्ञान्से माना हुआ दुःख है। प्रज्ञापराध एव एष दुःखमिति यत् हम जिसे दुःख कहते हैं वह हमारी प्रज्ञाका अपराध है माने समझका दोष है।

जैसे कोई व्यापारी अपना पूरा हिसाब देखे बिना केवल आजके हिसाबको देखकर घाटा भान ले और दुःखी हो जाय, तो यह उसकी समझका दोष है; उसी प्रकार हम अनादि, अनन्त अपनी आत्मा (साक्षी) को तो देखते नहीं कि वह नित्य, शुद्ध बुद्ध, मुक्त ब्रह्म ही है, बस एक शरीरके विचारसे अपना पूरा हिसाब मान लेते हैं। यही समझकी भूल है।

यदि अज्ञानसे दुःख न होता तो ज्ञानसे वह दूर न हो सकता था । यह नियम है कि जो वस्तु अज्ञानसे होती है वह होती नहीं है और जो वस्तु ज्ञानसे मिट जाती है, वह भी नहीं होती। रस्सीमें रस्सीके अज्ञानसे सर्प दिखता है और रस्सीके ज्ञ. से सर्प नष्ट हो जाता है, अतः वह सर्प है ही नहीं। उसी प्रकार साक्षीके ब्रह्मस्वरूपके अज्ञानसे साक्षीमें दुःख, परि-च्छिन्नता, अल्पज्ञता आदि प्रतीत होते हैं और उसके ब्रह्मत्वके ज्ञानसे वे सब नष्ट हो जाते हैं; अतः दुःखादि भी वस्तुतः हैं नहीं, केवल इनका भ्रम हममें होता है। वेदान्त भ्रमनिवर्तक ज्ञानको भी कल्पित मानता है। जैसे अविद्या कल्पित है वैसे ही अविद्या-निवर्तक ज्ञान भी कल्पित है। कल्पितकी निवृत्ति कल्पितसे ही होती है।

आप समें समसत्ता जिनकी । लखि साधक बाधकता तिनकी ॥

(विचारसागर)

किसी भी वस्तुका वर्णन करो, ऐसा कहना पड़ेगा कि ‘मुझे ऐसा प्रतीत होता है।’ इसके अतिरिक्त और काई भाषा नहीं है। सृष्टिका कारण, प्रलयका स्वरूप, ईश्वर, प्रकृति, किसीका भी वर्णन करो, कहना यही पड़ेगा कि मुझे ऐसा प्रतीत होता है। बन्धन भी प्रतीत होता है और मोक्ष भी । सूख भी प्रतीत होता है और दुःख भी। इस प्रतीतिको जब हम सच्ची मान लेते हैं तब सुखी, दुःखी होते हैं। भेद – प्रतीतिके ज्ञानको हम पहले सच्चा मान लेते हैं, फिर अच्छा-बुर। मानते हैं, तत्पश्चात् प्रिय-अप्रिय मानते हैं और तब फिर प्राप्ति और त्यागक प्रयत्न करते हैं। इस प्रकार हम भेद-प्रतीतिमें इतने निमग्न हो जाते हैं कि वह सत्य बन जाती है और राग-द्वेष बद्धमूल हो जाते हैं। आत्मदेव तो सर्वथा शुद्ध और आनन्दस्वरूप ही हैं।

आनन्दके सम्बन्धमें पाँच बातें मनमें बैठा लो-१. आनन्दका कोई कारण नहीं होता । अर्थात् आनन्द उत्पन्न नहीं होता। उत्पन्न हुआ आनन्द नाशवान् होगा । अतः आनन्द नित्य है। २. आनन्दका कोई कार्य नहीं होता । अर्थात् आनन्द सबका फल है, आनन्दका कोई अन्य फल नहीं है। अतः आनन्द अपरिणामी निर्विकार है। ३. आनन्दका कोई प्रतिस्पर्धी नहीं होता जैसे कि सुखका प्रतिस्पर्धी दुःख होता है। इस अर्थ में आनन्द सुखसे विलक्षण है अतः आनन्द अद्वितीय अथवा पूर्ण है। आनन्दका कोई विजातीय नहीं है। ४. (क) आनन्दमें सजातीय भेद नहीं है, अतः सर्वत्र आनन्द एक ही है, भले वह किसी प्रकार भी (किसी भी उपाधिसे) प्रकट हो । खट्टा खानेसे आनन्द एक और मीठा खानेसे आनन्द दो, ऐसा नहीं होता । विषय-भेदसे आनन्दमें भेदका आरोप होता है पर आनन्द एक हो है। (ख) आनन्दमें स्वगत-भेद भी नहीं होता। कम आनन्द, अधिक आनन्द, गाढ़ा आनन्द, हल्का आनन्द आदि जो तारतम्य प्रतीत होता है वह वृत्तिका है, आनन्दका नहीं। ५. आनन्द कभी परोक्ष नहीं होता । अज्ञात रूपसे आनन्द कभी नहीं होता ।

अर्थात् आनन्द कभी अज्ञानसे ढंकता नहीं है। आनन्द सबका सबसे बड़ा प्रेमास्पद है। सब आनन्दसे ही प्यार करते हैं। तुम सबसे अधिक जिससे प्यार करते हो वही तुम्हारा आनन्द है और सबस अधिक प्यार अपने अतिरिक्त और किसीसे नहीं होता। ‘नारद भक्ति-दर्शन’ में प्रेमके लक्षणमें भी जहाँ ‘तत्सुखे सुखित्वम्’ (उसके सुखमें सुखी होना) कहा गया है वहाँ ‘सुखित्वम्’ (सुखी होना) आत्मगामी ही है। आनन्द अन्य नहीं है। आप ही आनन्द है।

अब सोचो पुरुषार्थ कहाँ है ? अपने पुरुषार्थ आप स्वयं हैं। अपने आपको छोड़कर और कुछ पाना नहीं है और अपना आपा नित्य प्राप्त है परन्तु यह ज्ञात नहीं है, बस यही भूल है। ज्ञात हो गया बस, दुःख निवृत्त हो गया, मोक्ष हो गया। ज्ञानसे नित्य प्राप्तको ही प्राप्ति-सी होती है।

हाथमें कंगन है परन्तु भूल गये। अब ढूंढते हैं इधर-उधर । किसी जानकारने बता दिया ‘वह हाथमें जो है वही तो कंगन है। बस, कंगन मिल गया। खोया नहीं था, खोया-सा था; मिला नहीं, मिल-सा गया । यही हाल अपने स्वरूपका है। उसकी ब्रह्मता खो-सी गयी है जिसके फलस्वरूप अपनेमें मृत्यु, दुःख, अज्ञान, बन्धन प्रतीत होता है। वेदान्त-वाक्योंके द्वारा कोई सद्‌गुरु कृपा करके बता देते हैं ‘वह ब्रह्म तो तुम आत्मा ही हो।’ बस, आत्माकी ब्रह्मता मिल-सी गयी और बन्धनादिकी-निवृत्ति हो गयी। यही मोक्ष है।

अपनेमें यह अज्ञान कैसे हुआ ? इस द्वैतरूप प्रपंचके कारण । प्रपंच माने पाँचका बखेड़ा । पाँच ज्ञानेद्रियोंने ही जो जाल फैलाया है वही प्रपंच है। यह प्रपंच अपनेमें अपनेसे पृथक् सत्य-सा प्रतीत होता है और आत्मा माने क्या ? आत्माका अर्थ है ‘मैं’। जहाँ-जहाँ आपको ‘मैं’ की भ्रान्ति हो सकती है वह-वह आत्मा शब्दका अर्थ हो जायेगा। ‘मैं’ का अर्थ यह स्थूल शरीर । लेकिन शरीरको मेरा भी कहते हैं। स्वप्नका विचार करोगे तो स्थूल शरीर मेरा हो जायेगा। सुषुप्तिका विचार करोगे तो सूक्ष्म शरीर भी मेरा हो जायेगा। शुद्ध अहं (साक्षी) का विचार करोगे तो कारण-शरीर भी मेरा हो जायेगा । वैसे आत्मा शब्दके चार अर्थ होते हैं :

यच्चाप्नोति यदादत्ते यच्चात्ति विषयानिह । यच्चास्य सन्ततो भावस्तस्मादात्मेति कथ्यते ॥
सम्पूर्ण विषयोंमें जो व्यापक है, सब विषयोंका जो प्रकाशक, ग्रहण करनेवाला है, सब विषयोंको जो अपनेमें समेट लेता है (खा जाता है) और जिसका भाव सदा बना रहता है उसको आत्मा कहते हैं। ये चारों बातें अपनेमें हैं और यह आत्मा आनन्द स्वरूप ही है।

जहाँ अपनेसे भिन्न आनन्द लेना होता है वहाँ तो करणकी, इन्द्रियोंकी, आवश्यकता होती है परन्तु स्वरूपभूत आनन्दके आस्वादनके लिए किसी करणकी आवश्यकता नहीं है न तल्थ कार्य करणं च विद्यते । शान्त, विक्षिप्त, सविषयक, निविषयक आदि वृत्तियोंकी भी आवश्यकता नहीं है। सव वत्तियोंका प्रकाशक आत्मा ही है। अतः आत्मानन्द करण-सापेक्ष नहीं है। इसीसे उसके लिए प्रयत्नकी भी आवश्यकता नहीं है।

ऐसे आत्मामें दुःख और बन्धन केवल अज्ञानसे, भूलसे हैं। आत्माकी भूलसे नहीं, मनुष्यकी भूलसे। यह मनुष्य देहमें अभिमान करनेवाला अज्ञानी हो गया है, अपनी भूल-भ्रम दूर कर दे तो स्वयं आनन्द-स्वरूप ही है।

‘यह रोग, यह अभाव, यह मौत मुझसे भिन्न कुछ है और यह मेरा कुछ नष्ट कर सकते हैं या कर रहे हैं’- यह अपनेसे भिन्न ‘कुछ’ मानना भ्रम है। यह द्वैत-प्रपंच है। इसका उपशम होना चाहिए ।

मात्र इस उपशमके लिए साधन हैं। उपशम होते ही स्वस्थता प्राप्त हा जायेगी । अपने स्वरूप-निर्माणके लिए साधन नहीं है।

अतः वेदान्त-विद्याका प्रयोजन अपने स्वरूपका अद्वैत-बोध ही है।

प्रपंचका उपशम कर्म, उपासना, योग आदि साधनोंसे नहीं हो सकता क्योंकि द्वैत-प्रपंच अविद्याकी कृति है, अतः विद्यासे ही इसका उपशम होगा।

दुःख दो प्रकारका है: एक तो वस्तुके कम-अधिक होनेका और दूसरा मनकी परिस्थिति बदलनेका। इसमें भी सभी विचारवान् यह मानते हैं कि वस्तु सुखद या दुःखद नहीं होती। अविद्याके कारण हम जिस वस्तुसे अपना सम्बन्ध जोड़ लेते हैं वही सुख-दुःख देती है।

शब्द, स्पर्श, रूप, रस, गन्ध – ये पाँच विषय हैं। ये न सुखद हैं न दुःखद । पृथिवी, जल, अग्नि, वायु, आकाश जो विषयोंके कारण हैं, वे भी न सुखद हैं, न दुःखद । इनका कारणभूत तामस अहंकार भी सुख-दुःखका हेतु नहीं है, नासिका, श्रवणादि इन्द्रियाँ भी सुख-दुःख नहीं देतीं । पंच-प्राण भो सुख-दुःख नहीं देते। इन सबका व्यवस्थापक अहंकार भी सुख-दुःखका हेतु नहीं। ये सब-के-सब प्राकृत हैं। बुद्धि भी केवल समझती है कि यह सुख है, यह दुःख है; वह सुख-दुःख देती नहीं है। इसी प्रकार प्रकृति भी सुख-दुःख नहीं देती । जब प्रकृति और प्राकृतके समस्त विस्तारमें कोई दुःख नहीं देता तो दुःख आता कहाँसे है ? उत्तर यही है कि अविद्यासे, अज्ञान, नासमझी, मूर्खतासे । जब हम किसी वस्तुको ठीक नहीं समझते, तब दुःखी होते हैं।

अहंता अर्थात् प्राकृत अहंकार तो सुषुप्तिमें भी रहता है। उस समय श्वास चलती है, रुधिराभिसरण होता है, नख-केश बढ़ते हैं, अन्न पचता है। अर्थात् अहंकार उस समय भी क्रियाशील रहता है। यह अहं दुःखका हेतु नहीं है। दुःखका हेतु तो ‘अस्मिता’ है। आत्मा है चेतन, द्रष्टा और अहंकार है प्राकृत । जब हम द्रष्टा और दृश्यका ठीक-ठीक अलगाव नहीं कर पाते और चित्स्वरूप होनेपर भी (अविद्याके कारण) जब प्राकृत अहंकारके साथ ऐसे एक हो जाते हैं कि अहंकारको ही अपना स्वरूप समझने लगते हैं, तब इसको ही अस्मिता कहते हैं। यही चिज्जड़-ग्रन्थि है। इस अस्मिता-रूप ग्रन्थिसे ही फिर राग-द्वेष और अभिनिवेश-रूपी क्लेश होते हैं।

असलमें दुःख देते हैं राग और द्वेष । प्रकृतिसे जैसे पुष्प उगता-बढ़ता-खिलता है, वैसे हो शिशु भी पैदा होता है और बढ़ता है। उसमें कर लिया मैं-पना, तो उससे अनुकूल-प्रतिकूलका भाव, राग-द्वेष आया और फिर रागसे सुख और द्वेषसे दुःख । अब राग-द्वेषमें इतने डूब गये कि देहको, पुत्रको, घरको अपनेसे अभिन्न मानने लगे। यह अभिनिवेश हो गया । इस प्रकार हमारे दुःखका कारण हमारा अविचार है। अविचारमें हम इतने खो गये हैं कि अपने मुक्तस्त्ररूपको, द्रष्टा-स्वरूपको भूल गये हैं।

अविद्या, अस्मिता, राग, द्वेष और अभिनिवेश- ये दुःखके कारण योगदर्शनके अनुसार हैं। योगी कहते हैं कि अविद्याके इस परिवारका नाश कर दा, विवेक ख्यातिसे । वह होगी चित्तवृत्तियोंके निरोधसे । समाधिमें जब द्रष्टा अपने स्वरूपमें स्थित होगा, तब उत्थान-दशामें जान जायेगा कि संसारकी किसी वस्तुसे मेरा सम्बन्ध नहीं है। वह वस्तु फिर आये या जाये । योगदर्शन कहता है कि दुःख-क्लेश आविद्यक हैं। अतः अविद्याकी निवृत्ति यदि कर दो तो तुम्हारा क्लेश मिट जायेगा, किन्तु संसार प्राकृत है, अतः मंसार ज्यों-का-त्यों बना रहेगा। प्राकृत संसार न सुख देता है, न दुःख ।

वेदान्तदर्शन कहता है कि सृष्टि दो प्रकारकी है-एक जीव-सृष्टि और दूसरी ईश्वर-सृष्टि । पृथिवी, जलादि पंचभूत, शब्द-स्पर्शादि तन्मात्र, इन्द्रियाँ, अन्तःकरण स्त्री, पुरुष आदि प्राणी इत्यादि ईश्वर-सृष्टि हैं। ईश्वर-सृष्टि दुःखद नहीं है। किन्तु ‘यह मैं हूँ और यह मेरा है, यह मैं नहीं हूँ और यह मेरा नहीं है’ यह जीवकी बनायी हुई सृष्टि है। तैत्तिरीय उपनिषद्‌का कहना है : आनन्दाद्धचेव खल्विमानि भूतानि जायन्ते । अर्थात् आनन्दसे ही ये सब भूत उत्पन्न होते हैं। नो ईश्वरकी सृष्टिका उपादान तो आनन्द है।

सृष्टि आनन्दसे निकली है, आनन्दमें स्थित है, आनन्दमें ही लीन हो जायेगी। अतः सृष्टि आनन्दरूप है। हुआ यह कि ‘इतना मेरा, इतना तेरा’- यह जो जीवने मान लिया, इस जीव-सृष्टिसे ही दुःख निकल पड़ा । मनुष्यने कभी विचार नहीं किया। यह विचार न करना ही अविद्या है,

अज्ञान है।

वेदान्तकी यह अविद्या योगदर्शनकी अविद्यासे कुछ भिन्न है। योग-दर्शनमें ईश्वर, जीव, प्रकृति, अविद्याको अनादि माना है; किन्तु वेदान्त सृष्टिको परमाणु या प्रकृतिसे बनी नहीं मानता। दूसरेसे सृष्टि बनी है, इसका निषेध करनेके लिए वह कहता है कि सृष्टि ईश्वरसे बनी है। यहाँ ईश्वरसे सृष्टि बननेका अध्यारोप ही है, सृष्टि बननेके समर्थनमें तात्पर्य नहीं है। अन्य-कारणवादके निषेधमें तात्पर्य है। तत्त्व-दृष्टिसे तो सृष्टि बनी ही नहीं है।

कर्मसे सृष्टि माननेमें प्रश्न उठता है कि पहिले कर्म या पहले शरीर ? शरीरके बिना कर्म हो नहीं सकता। पहले कर्म तो बिना शरीरके कर्म

७. आनन्दो ब्रह्मेति व्यजानात् । आनन्दाद्धघेव खल्विमानि भूतानि जायन्ते आनन्देन जातानि जीवन्ति आनन्दं प्रयन्ति संविशन्ति । (तैसि० ३.६) ।
कहाँसे आया ? पहले शरीर तो कर्मके बिना शरीर बना कैसे ? यदि दोनों साथ-साथ थे तो उनमें कार्य-कारणभाव नहीं बनेगा। दोनोंको अनादि माननेसे भी कार्य कारण भाव नहीं बनेगा। अतः ये अनादिरूपसे कल्पित हैं। अनादि ब्रह्म वास्तविक है और अनादि कार्य-कारणभाव कल्पित है। यह मानना पड़ेगा।

सांख्य और योग कहते हैं कि सृष्टि अविद्यासे दुःख देती है, परन्तु घेदान्तका तो कहना है कि सृष्टि ही अविद्यासे बनी है। अपनी आत्मासे भिन्न सृष्टिको हम अधिष्ठानके (प्रत्यक्चैतन्याभिन्न बह्मतत्त्वके) अज्ञानसे ही मान रहे हैं। आत्माको बह्मस्वरूप जानते ही सृष्टि नहीं रह जाती। अपनी आत्मासे भिन्न सृष्टि है, यह विचार अपने आपको वह्मस्वरूप न जाननेसे ही है।

कालके सम्बन्धमें निर्णय यह है कि भूतकाल अनादि है और भविष्यत्काल अनन्त है। इस अनादि-अनन्त कालके मध्य तुम्हारी आयुके जो सौ-पचास वर्ष हैं वह उस कालका कौन-सा भाग है ? कहना होगा कि यह सौ-पचास वर्ष तो प्रतीतिमात्र है, अनादि अनन्त कालमें। इसीप्रकार, तुम्हारे शरीरने जो देश घेर रखा है वह अनन्त देशका कौन-सा भाग है ? विस्तार-दृष्टिस भी अनन्त कोटि बह्माण्ड अनन्त देशमें केवल प्रतीतिमात्र हैं। कारण-सत्ताकी दृष्टिसे देखें तो जो पूर्ण सत्ता होती है उसमें कोई भी परिच्छिन्न सत्ता रह नहीं सकती क्योंकि एक परिच्छिन्न-सत्ता जहाँ होगी वह पूर्ण-सत्ताको भी वहाँ परिच्छिन्न बनावेगी। अतः उस अनन्तके अज्ञानसे ही हम अनन्त कोटि बह्माण्डोंको मान रहे हैं !

अब और देखो ! रूपमें नेत्र प्रमाण हैं। नेत्रमें मन प्रमाण है। मनमें बुद्धि और बुद्धिके लिए मैं प्रमाण हूँ। मैं बुद्धिके भाव-अभाव, दोनोंका साक्षी हूँ। देश, काल, वस्तु, इन सबकी प्रतीति बुद्धिके द्वारा होती है। अतः बुद्धि और बुद्धि द्वारा प्रतीत होनेवाले सब पदार्थ दृश्य होनेके कारण स्वप्नके समान मिथ्या भासमान हैं। इस प्रकार देश-काल-वस्तुकी वास्तविक सत्ता नहीं है। समाधिमें शान्त चित्त में सृष्टिकी प्रतीति नहीं होती । विक्षिप्त चित्तमें ही सृष्टिकी प्रतीति है। पागलपनमें किसीको कुछ प्रतीत हो तो वह सत्य होगा या मिथ्या ? इसलिए समाधिमें और सुषुप्तिमें सृष्टिका अभाव होनेसे, केवल विक्षिप्त चित्तमें प्रतीत होनेसे, दृश्य होनेसे, विकारी होनेसे परिच्छिन्न होनेसे और ज्ञाननिवर्त्य होनेसे सृष्टि सिद्ध नहीं होती । यह न तो सत्ताकी दृष्टिसे सत्य है, न ज्ञान-दृष्टिसे और न अनादि-अनन्त दृष्टिसे ही। यहाँ तक कि यह अदृष्टसे भी नहीं बनी, क्योंकि अदृष्टकी प्रतीति नहीं हो सकती। यह तो केवल अज्ञान-दृष्टिसे है। और अविद्या (अज्ञान) की कल्पना भी अविद्यामें बैठकर ही की जाती है। ब्रह्मदृष्टिसे तो अविद्या तीन-कालमें नहीं है। अविद्यमान होनेपर भी मनुष्यको तो अपने अज्ञानी होनेकी अनुभूतिके बलपर अविद्याकी कल्पना करनी पड़ती है।

ब्रह्म ज्ञानस्वरूप है। ज्ञानस्वरूप उसे कहते हैं जो (अपनेको भी जाने और) दूसरेको भी जाने। लेकिन दूसरा है ही नहीं तो ब्रह्म किसको जानेगा ? अपने आपको । किन्तु ब्रह्म अनन्त है। यदि अपनेको वह पूर्णतः जान ले तो उसे अपना अन्त मिल जायेगा। ब्रह्मका स्वभाव है जानना और अनन्तका स्वभाव है जाननेमें न आना। जैसे आँखका स्वभाव है देखना और आकाशका स्वभाव है पूर्णतः दृष्टिमें न आना। इसका फल यह होता है कि हम आकाशमें नीलिमा या क्षितिज देखने लगते हैं। इसी प्रकार ब्रह्मका ज्ञान स्वभाव है और दृश्य न होना भी स्वभाव है। ज्ञानस्वरूप होनेसे वह ज्ञेय बनता नहीं, और देखे बिना वह रहता नहीं। तो स्वरूपका ग्रहण न होनेसे आकाशमें नीलिमाके समान अन्यथा-ग्रहण (दूसरे रूप में दोखना) हो जाता है। इस प्रकार अपने आपको न देख पानेके कारण वह एक, अपरिच्छिन्न, चेतनको अनेक, परिच्छिन्न, जड़के रूपमें देखने लगता है। अपनेको ही अन्यरूपसे देखता है।

देवस्यैष स्वभावोऽयमाप्तकामस्य का स्पृहा । (मां० का० १.९)

यह परमात्माका स्वभाव है। इसलिए यह दीखना कोई अपराध नहीं है। ज्ञान अज्ञानका विरोधी है, भानका विरोधी नहीं है। इसीसे यह प्रकृति और प्राकृतं प्रपंचकी प्रतीति (जिसे सांख्य और योग नित्य मानते हैं), ज्ञान हो जानेके बाद भो रहती है, केवल इसमें जो सत्यत्वकी भ्रान्ति है कि आत्मासे भिन्न यह सत्य है, वह मिट जाती है।

प्रपंचको भ्रान्ति कहनेका भी कारण है। ज्ञान ब्रह्म में जहाँ आना-जाना माना, वहाँ भ्रान्ति हुई। जब ‘ज्ञान अन्तःकरणकी वृत्तिपर आरूढ़

८. अविद्यास्तीत्यविद्यायामेवास्तित्वं प्रकल्प्यत्ते ।

ब्रह्मदृष्ट्या त्वविद्येयं न कथञ्चन विद्यते ।।
होकर प्रमेय-देशमें जाता है’, ऐसा मांना तभी भ्रान्ति हुई । भ्रमणं भ्रमः । भ्रमण ही भ्रान्ति है क्योंकि ज्ञान देश-परिच्छिन्न नहीं है। ज्ञान काल-परिच्छिन्न भी नहीं है कि एक क्षण यहाँ फिर वहाँ । ज्ञान वस्तु-परिच्छिन्न भी नहीं है, इसलिए वह विषयमें रहकर ‘इदम्’ और देहमें ‘अहम् बन जाय, ऐसा नहीं है। इसलिए जहाँ ज्ञानका आना-जाना माना, वही भ्रम हो गया।

जैसे नेत्रवृत्ति जाकर पदार्थसे टकराकर जब लौटती है तब उस पदार्थका ज्ञान होता है, इसी प्रकार ज्ञानवृत्त्यारूढ़ होकर कहीं जाय और टकराकर न लौटे तो ज्ञेयकी उपस्थिति बुद्धिमें नहीं होगी। शेयसे टकराकर लौटनेपर ही बुद्धिमें ज्ञेयकी उस्थिति होती है। यह टकराकर लौटा हुआ ज्ञान विपरीत ज्ञान हो गया। विपरीत ज्ञानका अर्थ यह है कि हम जो कुछ देखते हैं, ज्ञानके विपरीत देखते हैं। यही भ्रान्ति-ज्ञान है।

यह द्वैत-प्रपंच अविद्यासे बना है, सत्य प्रतीत होता है। अब अद्वैत ज्ञानसे इसमें सत्यत्वकी प्रतीति नहीं रहेगी। ब्रह्मज्ञानका अर्थ है- अनन्त-विषयक विद्या । अनन्तका ज्ञान होनेसे यह पता लग जायेगा कि हम जो अपने और दूसरोंमें परिच्छिन्नता देखते हैं, वह भ्रम है। किसी भी वस्तुकी उत्पत्ति-नाश नहीं है, क्योंकि न तो सद्वस्तुका और न असद्वस्तुके ही उत्पत्ति-विनाश होते हैं। भगवान् श्रीकृष्णका कहना है :

नासतो विद्यते भावो नाभावो विद्यते सतः । (गीता २.१६)

जो वस्तु है उसका कभी नाश नहीं होता और जो नहीं है वह कभी उत्पन्न नहीं होती। इस प्रकार जन्म-मृत्यु दोनोंका दोनों में निषेध कर दिया । न असत्से सत्की उत्पत्ति होती है और न सत्से असत्की। यह बिना हुए ही उत्पत्ति-विनाशकी लीला दीख रही है। बिना हुए दीखनेके कारण यह अनिवर्चनीय है। हम इसको अविद्यासे सत्य मानते हैं और बँधते हैं। अतः विद्यासे स्वरूपमें नित्य-निवृत्त अविद्याकी निवृत्ति होकर नित्य-सिद्ध मोक्षकी सिद्धि हो जायेगी। यही वेदान्त-विद्याका प्रयोजन है।

[ जब प्रपंच ही सत्य नहीं तब जीव और ईश्वर (ब्रह्म) का द्वैत हो कैसे सत्य हो सकता है क्योंकि सारे भेद-प्रपंचके अन्तर्गत एवं प्रपंचाश्रित हैं। तथापि जीव और ब्रह्मका एकत्व वेदान्तका विषय ही है अतः इस सम्बन्धमें यहाँ अधिक कुछ नहीं लिखा जाता ।]
३. शंका :- ब्रह्मविचार अभी नहीं करना चाहिए। क्योंकि विचार

तो वहाँ किया जाता है जहाँ सन्देह हो। ब्रह्म-स्वरूप तो शास्त्रमें स्पष्ट ही है। यदि कहो कि विचार तो ब्रह्मका नहीं आत्मा और ब्रह्मकी एकताका करना है, फिर भी ब्रह्म-विचारकी आवश्यकता नहीं है क्योंकि एकत्व तो है ही, उसमें विचारकी क्या जरूरत ? यदि कहो कि एकत्व तो है परन्तु अध्यासके कारण इस एकत्वका अनुभव नहीं होता, इसलिए विचारकी आवश्यकता है, तो पहले अध्यास तो सिद्ध करो। तभी तो विचार हो सकेगा ।

समाधान :- अच्छा सुनो ! अन्यमें अन्यके अवभासका नाम अध्यास

है।’ अथवा ‘जो वस्तु जो न हो उसे वह-वैसा समझना अध्यास है। वस्तुको ठीक-ठीक न जाननेके कारण उसको कुछ अन्य जानना ‘अध्यास’ है। इसलिए अध्यास माने भ्रम होता है। अज्ञानके कारण अध्यास (भ्रम ) होता है। आत्माको ब्रह्म न जानना अज्ञान है और इसलिए उसे विपरीत गुण-धर्मी जीव जानना अध्यास है।

अध्यास सबके लिए अहं-बुद्धिसे ही सिद्ध है: अध्यासोऽहं बुद्धिसिद्धः ।

यह पुस्तक है और मैं इसका द्रष्टा हूँ। मैं इस पुस्तकसे पृथक् हूँ, यह सुस्पष्ट है। किन्तु यदि द्रष्टाको यह अनुभव होने लगे कि ‘मैं पुस्तक हूँ’ तो अम हुआ या नहीं ? यही दशा इस हड्डी-माँस-चामके देहकी है। यह देह अलग है, दृश्य है, और हम इससे पृथक् इसके द्रष्टा हैं। यह बात सबको ज्ञात है फिर भी सब यह अनुभव करते हैं कि हम देह हैं। ज्ञानके विरुद्ध जो यह अनुभव होता है उसीका नाम अध्यास है और यह अहं-बुद्धिसे ही सिद्ध है। फिर ब्रह्मविचार करनेमें क्या आपत्ति हो सकती है ?

४. शंका :- नहीं, बह्मविचार अभी भी नहीं करना चाहिए। ब्रह्म सदैव है, अब भी है और आगे भी रहेगा। हम (आत्मा) भी सदैव हैं, अब भी हैं और आगे भी रहेंगे। ब्रह्म, आत्मा और दोनोंका एकत्व शास्त्रमें स्पष्ट ही है, अतः ब्रह्मविचार निरर्थक है।
समाधान :- हमने बताया कि शास्त्रमें सबका वर्णन स्पष्ट होनेपर भो अध्यासके कारण उस वर्णनकी सत्यतामें सन्देह है। श्रुतिका कथन है :

९. अन्यस्मिन् अन्यावभासः अध्यासः (ब्रह्मसूत्र शांकर भाष्य ) ।

१०. अतस्मिस्तद्बुद्धिः अभ्यासः (ब्रह्मसूत्र शांकर भाष्य ) ।
तत्त्वमसि अर्थात् तुम आत्मा देश-काल-वस्तुसे अपरिच्छिन्न अद्वितीय ब्रह्म हो । किन्तु हमारा प्रत्यक्ष अनुभव तो यह है कि हम देह हैं, उत्पन्न हुए हैं, बड़े हुए हैं, घिस रहे हैं और एक दिन मर जायेंगे। हमें तो साफ मालूम पड़ता है कि हम हिन्दू हैं, मुसलमान हैं, ईसाई हैं, कोई हमारा शत्रु है, मित्र है। हमको तो यह भी पता नहीं चलता कि हम आत्मा हैं। फिर हम ब्रह्म तो हो ही कैसे सकते हैं? भले ही श्रुति आत्मा और ब्रह्मकी एकताका स्पष्ट वर्णन करती हो, परन्तु वह एकत्व हमारे प्रत्यक्ष ज्ञानसे विपरीत होनेके कारण सन्देहका विषय है। अतः ब्रह्म-विचार करना आवश्यक है।

सूर्य पृथिवोसे कई गुना बड़ा है, यह ज्ञान होनेपर भी वह प्रत्यक्ष में बहुत छोटा मालूम पड़ता है। विचार करने पर यह सिद्ध होता है कि उक्त विरोध पृथिवी और सूर्यके मध्य दूरीके कारण है अर्थात् दूरीकी उपाधिसे यह विरोध प्रतीत होता है। इसी प्रकार ब्रह्म-विचार करनेपर यह ज्ञात होता है कि आत्मा और ब्रह्मका प्रातीतिक विरोध अन्तःकरण और उसके कारणकी उपाधिके कारण है, वास्तविक नहीं। और यदि कार्य-कारण जगत् मिथ्या ही सिद्ध हो जाय तब तो विरोधका पूर्णतः परिहार ही हो जायेगा। अतः ब्रह्मविचार करना अवश्य कर्त्तव्य है।

श्रुति कहती है : तुम चेतन ब्रह्म हो। साम्प्रदायिक लोग कहते हैं : तुम हिन्दू हो, मुसलमान हो, ईसाई हो। धार्मिक कहते हैं : तुम जीव हो, पापी-पुण्यात्मा हो, स्वर्ग-नरकमें आने-जानेवाले हो । संसारी लोग कहते हैं : तुम देह हो, कर्ता हो, भोक्ता हो। उपासक कहते हैं : तुम ईश्वरके दास हो, सखा हो, वत्स हो, प्रेमी हो। आखिर तुम हो क्या ? तुम्हारे बारेमें श्रुतिका कथन ठीक है या दूसरे लोगोंका ? इस सन्देहकी निवृत्तिके लिए विचार आवश्यक है।

श्रुतिकी बात छोड़ो। आपसे एक बच्चा आकर कह गया कि आप देह नहीं, ब्रह्म हैं। अब यदि उसका कहना आपके प्रत्यक्षसे विपरीत है तो आप विचार करेंगे या नहीं ? यदि कोई बालक आकर आपसे कह जाय कि भोजनमें विष है, तो क्या आप विचार किये बिना ही भोजन कर लेंगे ? अतः विचारकी आवश्यकता है।

प्रत्यक्षके विरुद्ध श्रुति प्रमाण नहीं हुआ करती। श्रीशंकराचार्य भगवान् स्वयं कहते हैं कि यदि सैकड़ों श्रुतियाँ भी मिलकर यह घोषणा करें कि नेत्रोंके सम्मुख प्रकाशमें स्थित घड़ा घड़ा नहीं कपड़ा है तो यह प्रमाण नहीं हो सकता। परन्तु आत्माकी ब्रह्मरूपताके सम्बन्धमें यह विरोध स्पष्ट है। तब श्रतिमें मिथ्या-सिद्धान्तके प्रतिपादनका दोष भी सम्भव नहीं है। अतः विचार करना पड़ेगा कि श्रुतिका सिद्धान्त ठीक है तो कैसे और हमारा प्रत्यक्ष अनुभव ठीक नहीं है तो कैसे ? इसलिए ब्रह्म-विचार आवश्यक है।

यह कहा जा चुका है कि ब्रह्म-ज्ञानका बहुत बड़ा प्रयोजन है मोक्ष अर्थात् सम्पूर्ण अनर्थोकी निवृत्ति और परमानन्दकी प्राप्ति । सम्पूर्ण अनर्थोकी जड़ देहाध्यास है। शरीरके जन्मके बाद ब्रह्मात्मैक्य-ज्ञानके अभाव में देह और अन्तःकरणको मैं-मेरा मानकर जो कूड़ा-करकट आपके अन्दर भरा गया है, वही देहाध्यास सम्पूर्ण अनर्थोंका मूल है, सम्पूर्ण दुःखोंका बीज है। ब्रह्मज्ञानसे यह दुःख समूल नष्ट हो जाता है। मरण, जन्म, सयोग-वियोग, नरक-स्वर्ग – सब प्रकारके दुःख ब्रह्मज्ञानसे समाप्त हो जाते हैं। जीवनकी सारी समस्याएँ ही दुःखहानिकी हैं और ब्रह्मज्ञानसे वे निःशेषतः हल हो जाती हैं। यह बात नहीं कि ब्रह्मज्ञानसे दुःखके हेतु नष्ट हो जाते हों, प्रत्युत उन हेतुओंके मध्य अन्तःकरणमें जो हीन-प्रतिक्रियामूलक सुखी-दुःखीभावको योग्यता है, वह समाप्त हो जाती है। अतः ब्रह्म-विचार सप्रयोजन है।

आपके जीवनमें दुःख इसीलिए है कि आप किसी चीजको छोड़ नहीं पा रहे हैं। जैसे धन, पुत्र, पति, देह या यश। या तो चीजें आपको छोड़ना चाहती हैं या आप चीजोंको छोड़ना चाहते हैं, परन्तु छोड़ नहीं पा रहे हैं। कहीं-न-कहीं गाँठ लगी है आपकी इनसे । यही दुःखका कारण है। यही ‘चिज्जड़-ग्रन्थि’ है-चेतनकी जड़के साथ गाँठ, द्रष्टाकी दृश्यके साथ गाँठ । संसारको सब चीजें प्रतिक्षण भूतमें भाग रही हैं और आप इन्हें वर्तमानमें रखना चाहते हैं- यही जीवनकी ग्रंथि है। आप चेतन होनेपर भी जड़-वस्तुको छोड़नेसे इनकार करते हैं, द्रष्टा होनेपर भी दृश्यके लोभमें अटके हैं, यही आपके जीवनमें दुःखका मूल स्रोत है।

ब्रह्मज्ञान वह निरोधक है जिससे दुःखके हेतुओंके इकट्ठे होने पर भी दुःखका जन्म नहीं होता। ब्रह्मज्ञान वह तलवार है जो मनुष्य-जीवनकी

११. नहि श्रुतिशतैरपि घटा पटो भवितुं शक्यः (श्रीशंकराचार्य) ।
समस्त अविद्या, कामना और कर्मकी गाँठको काटकर उसे निर्गन्थ और स्वतन्त्र बना देती है। ‘उस परावर परमात्माको जान लेनेपर जीवकी हृदय-ग्रन्थिका भेदन हो जाता है, सब संशय निवृत्त हो जाते हैं और समस्त कर्म क्षीण हो जाते हैं। ‘२

ग्रन्थिका निर्माण कैसे होता है ? अध्याससे, या भ्रमसे । और भ्रम होता है अज्ञानसे । आत्माके आनन्द-स्वरूपके अज्ञानसे मनुष्य अन्यमें आनन्दकी खोज प्रारम्भ करता है। इसके लिए वह प्रथम हृदय (बुद्धि) में आता है जहाँ उसे आनन्दके स्थलके बारेमें संस्कार-रंजित प्रेरणा, सूचना, आदेश प्राप्त होता है। तदनन्तर वह आनन्दके कल्पित करण मन तथा इन्द्रियों में आता है। वहाँ उसे संस्कारित आनन्द-स्थल (विषय) का भोग करनेकी योग्यता प्राप्त होती है। आनन्द-यात्राका यह दूसरा पड़ाव है। भोग-ज्ञान तथा भोग सुख प्राप्तिकी योग्यताके पश्चात् वह कर्ममें प्रवृत्त होता है। सुखके विषयको वह सटाने-हटानेका प्रयास करता है; तदनन्तर उससे अधिकार-जन्य और अभिमान-जन्य सुख भी प्राप्त करता है। यह यात्राकी तीसरी चट्टी है। चौथी चट्टी फलरूपा है। सुखभोगके पश्चात् भोक्ताको निम्न-लिखित संस्कार घेर लेते हैं :

१. सुख विषयमें है; विषय सुखरूप हैं।

२. विषय-सुख प्राप्त करना ही सच्चा पुरुषार्थ है। हमें विषय-सुख अवश्य चाहिए ।

३. जो उक्त सुख और तद्विषयक पुरुषार्थमें बाधक है वह शत्रु है और जो साधक है वह मित्र है। इस प्रकार राग-द्वेषकी सृष्टि होती है।

४. “मैं कर्ता हूँ, भोक्ता हूँ, परिच्छिन्न, परतन्त्र, संसारी जीव हूँ” इस भ्रमकी सृष्टि और पुष्टि होती है। आत्माको आनन्दस्वरूप न जानना अज्ञान है। परन्तु आत्मासे विषय तक तथा विषयसे वापस आत्मा तककी जो सुख-यात्रा है वह ‘भ्रमण’ है; और यह भ्रमण ही भ्रम है: भ्रमणं भ्रमः । इसीसे ग्रन्थि बनती है जिसका चतुर्मुख स्वरूप ऊपर बताया गया ।

ब्रह्मज्ञानसे ग्रन्थि और उसके मूल. दोनोंका नाश हो जाता है। आत्मामें आत्माके अज्ञानसे बुद्धि, मन, इन्द्रियाँ, विषय, इनके संयोग-वियोग, सुख-१२. भिद्यते हृदयग्रन्थिश्छिद्यन्ते सर्वसंशयाः । क्षीयन्ते चास्य कर्माणि तस्मिन्दृष्टे परावरे ।। (मुण्डक० २.३.८)
दुःख, सब प्रतीत होते हैं। परन्तु सम्पूर्ण प्रतीति वहीं दीखती है जहाँ वह नहीं है। अनन्तमें सान्त, चेतनमें जड़, सत्में असत्, अनन्यमें अन्य और अद्वितीयमें अनेक दीखता है। सम्पूर्ण देश-काल-वस्तु अपने अभावके अधिष्ठानमें ही दीखते हैं, अतः वे सब प्रतीतियाँ मिथ्या हैं और प्रतीतिका अधिष्ठान देश-काल-वस्तुसे अपरिच्छिन्न ब्रह्म है।

इसी अधिष्ठान ब्रह्मके ज्ञानके लिए हम ब्रह्म-विचार करते हैं। शान्तिसे चुप बैठे रहनेका नाम ब्रह्म-विचार नहीं होता । शान्ति विचारके जागरणकी भूमि है परन्तु विचार नहीं है। अज्ञानका नाश शान्तिसे नहीं, विचारसे होता है। और विचार आत्मा और ब्रह्मकी एकताका होना चाहिए ।

आत्मा ब्रह्म बनता नहीं, स्वयं ब्रह्म ही है। उसका ब्रह्मत्व केवल अज्ञानसे आवृत है। ज्ञान द्वारा वह अज्ञान नष्ट हो जाता है और ब्रह्मत्व प्रकट हो जाता है। जो वस्तु ज्ञानसे मिलती है वह पहिलेसे ही मिली रहती है, और जो वस्तु अज्ञानसे अनमिली रहती है वह भी पहिलेसे ही मिली होती है। अतः आत्माका ब्रह्मत्व सिद्ध ही है, ज्ञानसे केवल उसके अनमिलेपनका भ्रम निवृत्त होता है। यही कारण है कि ब्रह्मकी प्राप्ति कर्म, उपासना या योग-समाधिसे नहीं होती, केवल ज्ञानसे होती है। आत्मामें अज्ञान त्रिकालमें है ही नहीं अतः आत्मामें अज्ञान नित्यनिवृत्त है। ज्ञानसे नित्यनिवृत्तकी ही निवृत्ति होती है।

कई आचार्य अज्ञान नहीं मानते। बड़े घटाटोपके साथ वे अज्ञानका खण्डन करते हैं। इसके लिए वे आश्रयानुपपत्ति, विषयानुपपत्ति, निमित्ता-नुपपत्ति, निवर्तकानुपपत्ति, निवृत्यनुपपत्ति आदि अनेक अनुपपत्तियोंका वर्णन करते हैं। किन्तु ऐसा करके वे अद्वैतमतका मण्डन ही करते हैं क्योंकि अद्वैत मतमें भी अज्ञान नित्यनिवृत्त हीं है। वह तो केवल सबकी प्रत्यक्ष अनुभूति है कि ‘में अज्ञानी हूँ, ब्रह्मको नहीं जानता’ इसका अनुवाद करके अज्ञान सिद्ध करता है और परमार्थतः उसका अनुभव न होनेसे उसे नित्यनिवृत्त घोषित करता है। इसलिए ब्रह्मज्ञानसे नित्यनिवृत्त अज्ञानकी ही निवृत्ति होती है, किसी सत्य अज्ञानकी नहीं ।

५. शंका :- ज्ञानमें कर्मकी कोई स्थिति है भी या नहीं ?

समाधान :- ज्ञान और कर्मके क्षेत्र विविक्त हैं। आत्मा और ब्रह्मकी एकतामें कर्म साधन नहीं है, उसमें तो ब्रह्मविचार-जनित ज्ञान ही एकमात्र साधन है। किन्तु जीवनसे कर्मका बहिष्कार संभव नहीं है। वह शास्त्रकी मर्यादा में बँधकर जीवनको सर्वाङ्गीण उत्कर्ष प्रदान करता है। इस स्पष्टी-करणके साथ अब हम दोनोंके विवेकका निर्वचन करते हैं।

(१) कर्म निर्माण विभाग है तो ज्ञान प्रमाण-विभाग है। यदि आप कुछ अपनेमें या अपनी परिस्थितियोंमें परिवर्तन चाहते हैं या सत्यका अपने मनोनुकूल रूपमें अनुभव करना चाहते हैं तो आपको कर्मका आश्रय लेना पड़ेगा । इसके विपरीत यदि आप सत्य वस्तुका जैसा-का-तैसा अनुभव करना चाहते हैं तो आपको ज्ञानमात्रका ही आश्रय लेना पड़ेगा ।

(२) वासनावान् कर्मका अधिकारी होता है और निर्वासनिक ज्ञानका अधिकारी होता है। जो भोगमें परिवर्तन चाहते हैं उनका धर्ममें अधिकार है। जो अपनी मनोवृत्तियों में परिवर्तन चाहते हैं वे उपासनाके अधिकारी हैं। जो अपनी वृत्तियोंका निरोध चाहते हैं उन्हें योग (समाधि) का आश्रय लेना चाहिए। इस प्रकार धर्म, उपासना और योगके अधिकारी कर्मके ही अधिकारी हैं। इसके विपरीत जो साधन-चतुष्टय सम्पन्न मुमुक्षु है, वह ज्ञानका अधिकारी है।

मूल बात यह है कि जो व्यक्ति सत्यको नग्न नहीं, अपनी वासनाकी पोशाक पहनाकर देखना चाहता है, वह कर्मका अधिकारी है; और जो नग्न-सत्यके साक्षात्कारके लिए स्वयं नग्न होनेको तत्पर है वह ज्ञानका अधिकारी है। ब्रह्मका ज्ञान उसीको होता है जो नंगा हो जाता है। वासना ही वसन है और निर्वासनता नग्नता ।

(३) कर्मके हेतु हैं- वासनावान् अधिकारी, कर्ताभाव, कर्मफलमें आस्था तथा कर्ममें श्रद्धा-विश्वास । ज्ञानके हेतु हैं- निर्वासनिक अधिकारी, श्रुति और प्रत्यक्ष ज्ञानके विरोधसे उत्पन्न सन्देह तथा मोक्षरूप फलमें आस्था । ज्ञानमें कर्म न होनेसे न तो कर्ताभावमें और न कर्म और उसके फलमें श्रद्धा-विश्वासकी आवश्यकता है। इस प्रकार ज्ञान और कर्मके हेतुओंमें स्पष्ट विरोध है।

(४) कर्म और ज्ञानके स्वरूपमें भी विरोध है। (क) कर्म कर्तृ-तन्त्र है तो ज्ञान वस्तु-तन्त्र है। इसका यह अर्थ है कि कर्ता स्वतन्त्र है-कर्म करे, न करे, उल्टा करे। इसीको ‘कर्तुमकर्तुमन्यथाकर्तुम्’ कहते हैं। किन्तु ज्ञानमें ज्ञाता परतन्त्र है। ज्ञान ज्ञाताके अधीन नहीं, वस्तुके (ज्ञेयके) अधीन है। आप घड़ीको उठायें, न उठायें या तोड़ दें, इसमें आप स्वतन्त्र हैं, परन्तु घड़ीको घड़ी न जानकर पुस्तक जानने लगें, इसमें आप स्वतन्त्र नहीं हैं। घड़ीका ज्ञान घड़ीके अधीन है, आपके अधीन नहीं है। इसी प्रकार आप कर्म, उपासना, योग करें, न करें या उनसे विपरीत करें – इसमें आप स्वतन्त्र हैं परन्तु आत्माका ज्ञान आत्माके ही आश्रित है उससे भिन्न किसी ज्ञाताके आश्रित नहीं। चूंकि आत्माका उससे भिन्न कोई ज्ञाता नहीं हो सकता, अतः उसका अज्ञान भी अज्ञानसिद्ध ही है। इस अज्ञानको निवृत्ति ही आत्मज्ञान है।

(ख) कर्म श्रद्धामूलक है और ज्ञान प्रमाणमूलक है। आपको

स्वर्ग जाना है तो अपने अधिकार, कर्ताभाव, यज्ञ, मन्त्र, ब्राह्मण और स्वयं स्वर्ग में श्रद्धा-विश्वास करना पड़ेगा। परन्तु सामने उपस्थित घड़ीको देखनेके लिए किसी श्रद्धा-विश्वासकी आवश्यकता नहीं है, केवल घड़ीके प्रकाशक स्वच्छ नेत्रकी आवश्यकता है। यहाँ नेत्र ही प्रमाण है।

(ग) कर्ममें आवृत्ति (दुहराना) आवश्यक होता है क्योंकि कर्मका फल अनित्य होता है। जप तो आवृत्तिपूर्वक होता ही है और शास्त्रमें विधान है कि यदि जप शास्त्रोक्त संख्यासे अनुष्ठित होनेपर भी फल न दे, तो चार, बार उसी अनुष्ठानको दोहराना चाहिए। उपासनाका स्वरूप आवृत्ति है तभी इष्ट-रसका उदय होता है। योगमें तो ‘अभ्यास’ ही मुख्य है। कर्म (धर्म) बाह्य शरीरसे होता है। उपासना मनका कर्म है। योगमें जो क्रिया-शान्ति है, वह कर्म-उपासनाके कर्मकी अपेक्षा विपरीत-दिशामें कर्म है।

कर्म-उपासनामें अनुलोम-क्रिया है तो योगमें प्रतिलोम-क्रिया है। दोनों कर्म हैं। परन्तु ज्ञानमें न अनुलोम-क्रिया है और न प्रतिलोम-क्रिया । ज्ञानमें आवृत्तिकी कोई आवश्यकता नहीं है क्योंकि एक बार, और सिर्फ एक ही बारमें, प्रमाण स्वच्छ होनेपर तथा प्रमाण-प्रमेयका निर्विघ्न सम्बन्ध होनेपर, वस्तुका ज्ञान हो जाता है। हाँ, यदि प्रतिबन्धोंके कारण ज्ञान एक बारमें अदृढ़ हो तो बार-बार ज्ञान-प्रक्रियाकी आवृत्तिकी आवश्यकता हो सकती है। यह बात श्रीशंकराचार्य भगवान्ने ब्रह्मसूत्रके ‘आवृत्तिः असकृदुपदेशात्’ (ब्र० सू० ४.१.१) भाष्यमें कही है। परन्तु स्पष्ट ज्ञान तो एक ही बार होता है, उसके दोहरानेकी आवश्यकता नहीं है।
(५) कर्म और ज्ञानके फलोंमें भी विरोध है। कर्म साध्यका निर्माण करता है; परन्तु ज्ञान सिद्ध-वस्तुका साक्षात्कार है। कर्मसे जो वस्तु प्राप्त होती है वह साधनके अनुरूप उत्पाद्य होती है और इन पाँचोंमें से ही किसी एक प्रकारकी होती है: उत्पाद्य, आप्य, विकार्य, संस्कार्य और विनाश्य ।

‘उत्पाद्य’ माने पहिले ‘घट’ वस्तु नहीं थी अब अपने कर्मसे अस्तित्व में आयी । ‘आप्य’ माने किसी दूसरेके कर्मसे घट-वस्तु उत्पन्न हुई परन्तु उसका उपयोग हम कर रहे हैं। यह उधार सौदा है। विकार्य माने विकृत हो जानेवाला । घट उत्पन्न हुआ और उसमें नमक रख दिया। इस कर्मका परिणाम होगा कि घट गल जायेगा। ‘संस्कार्य’ माने जिसका संस्कार किया जा सके। ‘घट’ गन्दा है तो साफ़ कर दिया, उसपर चित्रकारी कर दी। चित्रित घट संस्कार्य है। ‘विनाश्य’ अर्थात् जो नष्ट हो जाय। घटमें डंडा मारा, घट नष्ट हो गया। ‘डंडा मारना-रूप जो कर्म है’ उसका फल घट-विनाश है। घट विनाश्य है। असलमें कर्मका जो भी फल होगा वह इन्हीं कोटियों में होगा ।

अब देखो, धर्म, उपासना और योगके क्या फल हैं ? वैदिक यज्ञादि कर्मोंके स्वर्गादि फल और लौकिक कर्मोंके फल भी उत्पाद्य, विकार्य, संस्कार्य और विनाश्य, इन्हींमें से हैं। उपासनाका फल वृत्तिकी स्थिरता-रूप समाधि है जो उत्पाद्य और विनाश्य है।

दूसरी ओर, ज्ञानसे जो वस्तु मिलती है वह पहिलेसे ही विद्यमान रहती है। ज्ञानसे नयी वस्तु नहीं बनती, केवल उसके सम्बन्धमें अज्ञानकी निवृत्ति होती है। अतः ज्ञानका फल उत्पाद्य नहीं होता। ज्ञान सदैव वर्तमानमें विद्यमानका होता है। अतः ज्ञेय ‘आप्य’ नहीं होता। ज्ञानसे वस्तुमें न विकार होता है और न संस्कार। अतः ज्ञानका फल विकार्य और संस्कार्य नहीं होता। ज्ञानसे वस्तु नष्ट भी नहीं होती। अतः ज्ञानका फल विनाश्य भी नहीं है। अतः ज्ञान सिद्ध वस्तुका साक्षात्कार है।

यदि मुक्ति भी कर्मका फल हो तो वह भी उत्पाद्य होकर अन्त में विनाश्य हो जायेगी। वह अन्य होनेसे जड़ भी होगी। अतः मोक्ष केवल ज्ञानैकगम्य है और वह आत्माके बह्मत्वके अज्ञानकी निवृत्तिमात्रसे ही प्राप्त होती है।
६. शंका :- कर्मसे भी ज्ञान होता है और ज्ञानसे मोक्ष होता है। है। तब कर्मको मोक्षमें हेतु क्यों न माना जाय ?

समाधान :- कर्मसे जो ज्ञान होता है उसमें और जिस ज्ञानसे

मोक्ष होता है उसमें, अन्तर है। कल्पना कीजिये कि आपको कश्मीरके मौन्दर्यका ज्ञान प्राप्त करना है। उसके लिए कश्मीर जाना-रूप कर्म अनिवार्य है। यदि वह सौन्दर्यं मनमें जम गया तो आपको बार-बार कश्मीर जानेकी क्रिया करनी पड़ेगी; और यदि मनमें न जमा तो उस सौन्दर्यसे विकर्षण भी हो सकता है। असलमें, प्रत्येक सविशेष ज्ञानमें यही होता है। जो वस्तु हमसे (ज्ञातासे) अन्य है उसका ज्ञान सविशेष ज्ञान है और उसकी प्राप्तिमें कर्म साधन है तथा ज्ञानोपरान्त भी उसके पुनः पुनः ज्ञानके लिए कर्म अनिवार्य है।

किन्तु जो देश-काल-वस्तुसे अपरिच्छिन्न ब्रह्म है वह सबका आत्मा है। उसके ज्ञानका स्वरूप सभी सविशेष-ज्ञानोंके बाधसे सम्पन्न होता है। वह निविशेष ज्ञान है। उसे पाने के लिए (आत्मासे बाहर किसी अन्यमें) न कहीं आना है न जाना है। उसे एक बार जाननेके पश्चात् बार-बार जाननेकी आवश्यकता भी नहीं है क्योंकि निविशेष ज्ञान राग-द्वेषका जनक नहीं होता ।

कर्म न तो आत्मज्ञान का साधन है और न फल। आत्मा भी न कर्मका कतों है और न कर्मका फल ।

यदि कहें कि सविशेष ज्ञानका बाध (निषेध) भी एक कर्म ही है, तो ऐसा नहीं है; क्योंकि सर्वाधिष्ठान दृङ्-मात्र आत्मा सविशेष और निविशेष ज्ञानोंका आश्रय होनेसे उसमें सविशेषका निषेध भी आत्मरूप ही है। प्रतीति और उसकी निवृत्ति एक ही अधिकरणमें होती है। अतः बाध (निषेध) – ज्ञान कर्मकी कोटिमें नहीं आता ।

कर्म सविशेष ज्ञानके पहिले भी है और बादमें भी है। किन्तु निर्विशेष ज्ञानके पहले या पीछे कर्मको आवश्यकता या अपेक्षा नहीं है। ब्रह्मसूत्रके अतएव चाग्नीन्धनाद्यनपेक्षा (ब्र० सू० ३.४.२५) और सर्वापेक्षा च यज्ञादिश्रुतेः अश्ववत् (३.४.२६) सूत्रोंकी (शांकर) व्याख्या में यह स्पष्ट कर दिया गया है कि मोक्षके सम्पादनमें केवल ज्ञान ही समर्थ है; उसमें कर्मकी कोई आवश्यकता नहीं है। कर्मकी उपयोगिता मात्र अन्तः-करणकी शुद्धिमें है, न कि मोक्षके उपपादनमें ।

शास्त्रमें जहाँ ज्ञानके बाद कर्मकी चर्चा है, वहाँ सांसारिक विषयों (व्यवहार) के सम्बन्धमें वह बात कही गयी है। यदि कर्मसे ज्ञान होता है तो भामतीकार का प्रश्न है कि ‘कर्म कौन-सा प्रमाण है ?’ प्रश्न उचित है क्योंकि ज्ञान प्रमाणसे ही होता है। कर्म कौन-सा प्रमाण है ? प्रत्यक्ष, अनुमान, उपमान, अर्थापत्ति, अनुपलब्धि शब्द, एतिह्य, संभव, चेष्टा -इनमें से कर्म कौन-सा प्रमाण है? स्पष्ट है कर्म कोई प्रमाण नहीं है, वह निर्माण है। कर्मसे प्रकाश नहीं, निर्माण होता है। अन्तःकरणकी शुद्धिमें कर्म उपयोगी है, प्रयोजनीय है; किन्तु अपरिच्छिन्न ब्रह्म के दिग्दर्शनमें एकमात्र ज्ञान ही साधन है। भामतीकारका वचन है-

‘वस्तुसिद्धिः विचारेण न क्वचित् कर्मकोटिभिः । ‘वस्तुकी सिद्धि विचारसे होती है, करोड़ों कर्मसे भी कभी नहीं हो सकती’ ।

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