!! वेदान्त-बोध !!
प्रबोधक :
अनन्तश्री स्वामी अखण्डानन्द सरस्वतीजी महाराज
प्रथम खण्ड – अधिकारी निरूपण
अध्याय 1 -> मनुष्य-जीवनमें मुमुक्षा दुर्लभ है
अध्याय 2 -> मुमुक्षाको पूर्तिका उपाय – ब्रह्मविचार
- १ . मुमुक्षाका उदय
- २. मुमुक्षुकी पूतिके विविध उपाय
- ३, ब्रह्मविचारसे ही मोक्ष
१. मुमुक्षा का उदय
मनुष्य-जन्म जो बड़ा दुर्लभ था आपको मिल गया है। यह वह साँचा है जिसमें परमात्मा समा जाता है। इसमें आपको वह शीशा मिला है जिसमें परब्रह्म परमात्मा का प्रतिबिम्ब दिखाई पड़ता है।
मनुष्य-शरीर में भी श्रुति का वह सिद्धान्त, वह रहस्य समझने आना दुर्लभ है जो कर्म की सीमा के पार है, जो भोग की सीमा से परे है। यही समझ मुमुक्षा की जननी है।
परन्तु हो क्या रहा है ? ऐसा दुर्लभ मनुष्य-जीवन प्राप्त करके भी जीवन कर्म और भोग के सम्पादन में ही बीत रहा है। इनके सम्पादन में दुःख भी मिलता है फिर भी इनके त्याग में रुचि नहीं होती ! रुचि होती है अपने को बेहोश करने में, दूसरों से लड़ाई-झगड़ा करने में और अपना अहंकार बढ़ाने में । असत् में उसकी आस्था दृढ़ होती जा रही है। फिर सत्य का ग्रहण क्यों होगा ?
जिसकी बुद्धि मोहग्रस्त है, वह तो फँसा है। बन्दर ने छोटे मुँह के बर्तन में चना लेने के लिए हाथ डाला, किन्तु जब मुट्ठी भर गयी तो बर्तन से हाथ निकलता ही नहीं ! वह पकड़ा गया है। अरे ओ मूढ़ मन ! एक चीज को पाने के लिए दुनिया में जाता है और इतना बन्धन ! इतनी पराधीनता ! स्त्री-सुख, धन-सुख, परिवार-सुख सब में पराधीनता है। जिसको पराधीनता नहीं खलती वह कैसे परम स्वतन्त्र परमात्मा को पाने के लिए उद्योग करेगा ? उसमें मुमुक्षा का उदय ही नहीं होगा।
जिसके लिए तुम एड़ी-चोटी का पसीना एक कर रहे हो वह सत्य है कि मृगतृष्णा ? क्या तुम बता सकते हो कि अनादि काल से अब तक जिन लाखों-करोड़ों लोगों ने वह चीज पायी, उसे भोगा, उसके मालिक बने, उनको सुख-शान्ति मिली ? नहीं मिली ! मानों लोगों को नशा चढ़ा है ! कर्म और भोग का नशा ! न शम्-शान्तिर्यया इति नशा – जिससे सुख और शान्ति न मिले उसको कहते हैं नशा ! आप नित्य-शुद्ध-बुद्ध-मुक्त होकर अपने को मरने वाला, पापी-पुण्यात्मा समझते हैं, स्वाधीन होने पर भी पराधीन समझते हैं, मुक्त रहने पर भी बद्ध समझते हैं, यही नशा है।
वेद कहता है : ‘यदि तुमने इसी जीवन में सत्य को जान लिया, तब तो ठीक है परन्तु यदि न जाना तो महान् विनाश हुआ।’१ आपकी बुद्धि परमात्मा से एक होने के लिए मिली थी, वह नहीं हुई। आपकी कामना परमानन्द से एक होने के लिए मिली थी, वह परमानन्द आपने प्राप्त नहीं किया ।
१. इह चेदवेदीदथ सत्यमस्ति न चेदिहावेदीन् महती विनष्टिः । (केन० २.५)
आपका यह जीवन अजर-अमर होने की सीढ़ी थी, परन्तु आपने अजर-अमर जीवन नहीं पाया ! यह तो मानो खुदकुशी हुई, आत्मघात हुआ । आपको अपना परिचय नहीं है कि ‘मैं कौन हूँ ?’ अपने आपको ठीक-ठीक न जानना ही आत्मघात है। आप अपने को ही मार रहे हैं, दूसरे को नहीं मार रहे हैं, क्योंकि आपने असत्य को पकड़ रखा है; अथवा अब तो असत्य ने ही आपको पकड़ लिया है और आप उसे छोड़ नहीं पा रहे हैं !
जो नहीं है उसे आपने ‘है’ समझ लिया है; जो पराया है उसको ‘अपना’ और जो अपना है उसे पराया समझ लिया है; जो सुख है उसको दुःख समझ लिया है और जो दुःख है उसको सुख समझ लिया है ! इससे बढ़कर और क्या मूढ़ता होगी ?
२. मुमुक्षा की पूर्ति के विविध उपाय
तब क्या करें ? वेद-शास्त्रों की पंक्ति-पंक्ति घोट डालें ? शास्त्रों की लच्छेदार प्रवचन करने की योग्यता प्राप्त कर लें ? वेदोक्त देवताओं की आराधना करके उनको सिद्ध कर लें ? सारा जीवन शास्त्र और लोक से सम्मत शुभ कर्मों में बिता दें ? सारा समय इष्टदेवता के भजन में व्यतीत करते रहें ? समाधि सिद्ध कर लें ? क्या उपाय करें कि असत् का ग्रहण छूटे, बुद्धि की मूढ़ता हटे, मुमुक्षा जगे और अन्ततः मोक्ष की प्राप्ति हो ?
श्रीशंकराचार्य भगवान् कहते हैं कि कुछ भी करो और चाहे जब तक करते रहो, जब तक आत्मा और ब्रह्म की एकता का बोध नहीं होता तब तक सौ कल्पों में भी मोक्ष की सिद्धि नहीं हो सकती ।२ उपनिषदों का यही सिद्धान्त है कि ‘बिना ज्ञान के मुक्ति नहीं होती।’३ ‘उसको जानकर ही मृत्यु का अतिक्रमण कर जाता है’ इसके लिए अन्य कोई दूसरा रास्ता नहीं है।’४
२. वदन्तु शास्त्राणि यजन्तु देवान् कुर्वन्तु कर्माणि यजन्तु देवताः । आत्मैक्यबोधेन बिना विमुक्तिर्न सिध्यति ब्रह्मशतान्तरेऽपि ।। (वि०चू० ६)
३. ऋते ज्ञानान्न मुक्तिः ।
४. तमेव विदित्वाऽतिमृत्युमेति नान्यः पन्था विद्यतेऽयनाय । (श्वेता० ३.८)
प्रश्न यह है कि आप पाना क्या चाहते हैं और छूटना किससे चाहते हैं ? असल में आप अजर-अमर जीवन, सत्य-ज्ञान और सहज बोधरूप स्वतन्त्र परमानन्द पाना चाहते हैं और जड़ता, मृत्यु, दुःख और पराधीनता से हमेशा-हमेशा के लिए छूटना चाहते हैं। दीनता, हीनता, पराधीनता, विकारिता -सब से मुक्ति चाहते हैं। दूसरे शब्दों में आप ‘मोक्ष’ चाहते हैं। यदि इस मोक्ष के प्रति आपकी इच्छा जाग्रत हो गयी है तो आत्मा और ब्रह्म के एकत्व-बोध के बिना इस मोक्ष की सिद्धि संभव नहीं है। जो कुछ करना है इसी एकत्व-बोध के लिए करना है।
शास्त्रों के पण्डित होकर भी मनुष्य की अर्थ और भोग की वासना न तृप्त होती है और न निवृत्त होती है।
पाण्डित्य से अभिमान बढ़ता है। हाँ, अर्थ का साधन हो सकता है पाण्डित्य या प्रवचन-कला किन्तु मोक्ष का नहीं। इसी प्रकार वैदिक कर्मों का अनुष्ठान तथा वैदिक देवताओं का यजन लौकिक-पारलौकिक सुख का हेतु तो हो सकता है परन्तु सुख की आसक्ति और पराधीनता की निवृत्ति नहीं कर सकता, परिच्छिन्नता की भ्रान्ति निवृत्त नहीं कर सकता । अतः वह मोक्ष में हेतु नहीं हो सकता ।
समाधि और इष्ट-चिन्तन विक्षेप और अनिष्ट का तो निवर्तक है, और वह भी उसी काल के लिए, परन्तु जीवत्व का (कर्तृत्व-भोक्तृत्व, संसारित्व और परिच्छिन्नत्व का) निवर्तक नहीं है। अतः ये भी मुक्ति के साधन नहीं हैं।
धार्मिक लोग कहते हैं कि ‘तुम यहाँ धर्म करो और मरने के बाद स्वर्ग में या अगले जन्म में तुम्हें फल (सुख) मिलेगा’ । इस सुखरूप कल्पना का नाम मोक्ष नहीं है।
उपासक लोग कहते हैं कि ‘तुम इष्टदेव की यहाँ, अब उपासना करो और उससे तुम्हें इस जीवन में तन्मयता का सुख और मृत्यु के बाद इष्टदेव के लोक में पहुँचने पर परमानन्द की प्राप्ति होगी’। किन्तु इस सुख की प्राप्ति का नाम मोक्ष-सुख नहीं है।
योगी लोग कहते हैं कि समाधि लगाओ, उसके बाद कैवल्य में (केवल द्रष्टा के स्वरूप में) स्थिति होगी। इससे सर्वदुःखनिवृत्ति हो जायेगी और उनके अनुसार यही मोक्ष है। परन्तु इसमें संसार और उसके सुख की पृथक् सत्ता निवृत्त नहीं हो सकती, अतः न तो इसमें भोक्तृत्व की निवृत्ति हो सकती है और न उसके परिच्छिन्नत्व की निवृत्ति हो सकती है। तब पराधीनता और अज्ञान की निवृत्ति कहाँ हुई ?
तत्त्वज्ञान में अपना स्वरूप ही मोक्ष है। केवल भ्रम के कारण हम उससे वंचित हैं। न वह धर्म से उत्पन्न होता है, न उपासना से और न भक्ति से । योग से भी उसमें स्थिति नहीं होती। वह तो अपना स्वरूप ही है ज्यों-का-त्यों । पहिले भी वह था, अब भी वही है और आगे भी वही होगा। सिर्फ बुद्धि की गड़बड़ी से यह छिप-सा रहा है, तिरोहित-सा हो रहा है, आवृत-सा हो रहा है। तत्त्वज्ञान में इस आवरण-भंग के लिए प्रयास करना अभीष्ट है। इसी से मोक्ष की सिद्धि होती है।
केवल भ्रम से ही बन्धन है और केवल ज्ञान से, समझदारी से मुक्ति मिलती है, यह वेदान्त का सिद्धान्त है। भक्ति में समझदारी के साथ भक्ति मिलने पर ईश्वर कृपा से मोक्ष होता है। धर्मात्मा लोग भी सिर्फ समझदारी से मोक्ष नहीं मानते । वे लोग समझदारी के साथ सदाचार और धर्मानुष्ठान से मोक्ष मानते हैं। योगी लोग समझदारी के साथ योगाभ्यास से स्थिति-विशेष में मुक्ति मानते हैं। और ऐसा भी है कि इन सब सिद्धान्तों में समझदारी का अर्थ भी पृथक् पृथक् होता है। फिर मुक्ति के स्वरूप में भी अन्तर है। सिद्ध-शिला पर वीतराग होकर, शुद्ध होकर, चमाचम चमकना जैनों की मुक्ति है। बौद्ध अन्तःकरण के उच्छेद को मुक्ति कहते हैं। सांख्यवादी पुरुष की असङ्गता को मोक्ष कहते हैं। पूर्वमीमांसक पार्थसारथि जगत् से सम्बन्ध-विलय को मुक्ति कहते हैं। मुसलमान और ईसाई मजहबों में और हमारे धर्म-उपासना ग्रंथों में भी मुक्ति का एक-सा ही स्वरूप है- अर्थात् कर्म और विश्वास के आधार पर किसी पीर-पैगम्बर, ईश्वर-पुत्र या अवतार को कृपा अथवा सिफ़ारिश पर स्वर्ग, बहिश्त, इष्टलोक की प्राप्ति । वेदान्त में अविद्या-निवृत्ति से उपलक्षित आत्मा का नाम ही मोक्ष है।
ईसाई-मुसलमान का मजहब विश्वास पर है, धर्म और योग का पंथ पौरुष का है, भक्ति का मार्ग ईश्वरानुग्रह पर है और वेदान्त का मार्ग विचार का है।
सीधी बात है। यदि आप मनुष्य-जन्म पाकर भी और विचार-शक्ति सम्पन्न होकर भी मोक्ष के लिए प्रयत्न नहीं करते तो आप अपने प्रति बहुत निष्ठुरता बरत रहे हैं, अपने साथ अन्याय कर रहे हैं। समझदार आदमी का काम यह है कि वह पहिले अपनी विमुक्ति के लिए प्रयत्न करे ! उसके लिए क्या तैयारी करे ? तो वह तैयारी यह है कि बाहरी वस्तुओं में जो सुख की स्पृहा है उसका संन्यास कर दे !
संन्यास माने कपड़ा रंगना नहीं, जंगल में चले जाना नहीं। अपने मन में जो इच्छाएँ हैं, वासनाएँ हैं, उन इच्छाओं, वासनाओं के त्याग का नाम संन्यास है। उसमें भी इच्छाओं के विषयों में जो यह बुद्धि है कि उन उन विषयों में सुख है, उस बुद्धि के त्याग का नाम संन्यास है।
यदि आप बाहरी वस्तुओं से सुख लेने के चक्कर में पड़े हैं कि यहाँ रहने से, यह खाने-पीने भोगने से, ऐसे रहने से सुख मिलेगा तो आप जिन्दगी भर के लिए उसमें फँस गये। न वस्तुओं की डिज़ाइन कभी ख़तम होंगी और न उनकी माँग कभी पूरी होगी ! और फिर जहाँ सुख है ही नहीं, उस सुख के भ्रम की समाप्ति उनकी इच्छा करने से कैसे समाप्त होगी ? आप अन्तर्यामी परमेश्वर के सुख का, परमानन्द का, आत्मानन्द का तो तिरस्कार कर रहे हैं और उसे बाहर के विषयों में ढूंढ रहे हैं! क्या विडम्बना है ! जो चीज़ सड़ने-गलने वाली हैं, मरने वाली हैं उनसे आप सुख की आशा करते हो ? आपके भीतर सुख की जो पवित्र गंगा बह रही है, उसके आस्वादन का आपने कभी प्रयत्न नहीं किया और बाहर आपने बहुत महँगी शराब खरीदी ! आपको सुखी होने की तो स्पृहा है परन्तु जो एकरस, सुखस्वरूप, आनन्द-स्वरूप है, उससे सुखी होने की इच्छा नहीं है? तो बाबा, इतनी बात तो पहिले आपके अन्दर आनी चाहिए कि आप बाहरी वस्तुओं से जो सुख प्राप्त करना चाहते हैं उस इच्छा का संन्यास कर दें।
इसके पश्चात् आप किसी महापुरुष की शरण में जाइये । वह आपको मुक्ति का मार्ग दिखायेंगे। वही आपके गुरु होंगे। गुरु वही होता है जो परमात्मा को दिखा दे । उससे आपने पूछा कि ‘ईश्वर कहाँ है ?’ और उसने अपने कलेजे की ओर उँगली उठाकर दिखा दिया कि ‘यहाँ है’। आपने पूछा कि ईश्वर कौन है ?’ और उसने आपकी ओर उँगली उठाकर बता दिया कि ‘तुम ईश्वर हो’ ।
इसी से गुरु को ‘देशिक’ भी कहा जाता है। देशिनी एक अंगुली होती है, उसके द्वारा जो बोधन करे वह देशिक। ‘मुक्ति क्या, कब, कहाँ ?’ पूछने पर वे अङ्गुलिनिर्देश करके बतायेंगे ‘मुक्ति अभी यहीं तुम तुम्हारा स्वरूप’ ।
वह गुरु कैसा हो ? सन्त हो और महानतम हो। जो सन्मात्र (अस्ति मात्र) से परिपूर्ण हो उसका नाम सन्त है, जो बाह्य वस्तुओं से अपने में महत्त्व का आरोप करते हैं वे सन्त नहीं हैं। जो महानतम ब्रह्म से एक होकर बैठा है वही महानतम है। जिसकी निविशेष ब्रह्मदृष्टि है वह सन्त है।
ऐसे गुरु के पास जाकर, उनके शरणापन्न होकर, उनको बड़ा बनाकर और स्वयं छोटे बनकर सीखना चाहिए और वह जो भी उपदेश करें उसमें आदरपूर्वक अपने आपको समाहित करना चाहिए।
आपके लिए दूसरा कोई साधन नहीं कर सकता । त्याग आपके स्वयं का धर्म है और सच्चिदानन्दधन ब्रह्म आपके स्वयं का स्वरूप है। दूसरा कोई आपके लिए यह सब कुछ नहीं कर सकता। ‘शक्तिपात’ की इच्छा आलसी लोगों का सपना है जो स्वयं कुछ नहीं करना चाहते ।
हमको एक साधु ने कहा- ‘अच्छा, होगा भजन भगवान् का ।’ उन्होंने हम पर शक्तिपात किया और फटाफट भगवान्का नाम जीभ पर आने लगा । फिर बन्द हो गया। जब शिकायत की तो वे बोले – ‘क्या हमेशा तुम्हारी जीभ पर बैठकर मैं बोलूंगा ?’
साधन, भजन, त्याग खुद को करना पड़ता है। आलसी, प्रमादी लोगों का यह रास्ता नहीं है। वेदान्त का अध्ययन दूसरी वस्तु है और श्रवण दूसरी वस्तु है। यह तो प्रमाणगत संशय५ और प्रमेयगत संशय६ को निवृत्त करके जो नैसर्गिक विपर्यय७ है उसे दूर करने के लिए निदिध्यासन स्वयं करना पड़ता है।
५. वेदान्तशास्त्र का तात्पर्य आत्मा और ब्रह्म की एकता में ही है और यही मोक्ष है ऐसे निश्चय का न होना प्रमाणगत संशय है।
६. आत्मा और ब्रह्म की एकता में जो दोष हैं उनके कारण बुद्धि में जो अनिश्चय है उसे प्रमेयगत संशय कहते हैं।
७. निश्चय होने पर भी व्यवहार का जो मूल आधार आत्मा और देह का सहज अध्यास है उसमें सत्यत्व भ्रान्ति नैसर्गिक विपर्यय है।
इस संसार-समुद्र में आप डूब रहे हो तो इससे अपना उद्धार स्वयं ही करना होगा। यह पंचभूतों में जो आपकी आकृति बनी हुई है और इसको चलाने वाले जो पंचभूतों के कार्य प्राणादि हैं, उनको मैं-मेरा मानना, वस यही भवसागर में डूबना है।
अपना उद्धार स्वयं कीजिये । ‘उद्धार’ शब्द का अर्थ है-कोई नीचे गिर रहा हो, गिरा हो, उसे ऊपर उठाना और फिर उसे पुनः गिरने न देना । अब आत्मा तो नित्य-शुद्ध-बुद्ध-मुक्त ही है, उसका क्या पतन और क्या उद्धार ? तब जो पतित मन से तादात्म्यापन्न हो गया है वही पतितात्मा है और जो उत्थित मन से एक हो गया है वह उत्थितात्मा है। अतः अपना उद्धार स्वयं करे, इस वाक्य का अर्थ है कि आत्मा के शुद्ध स्वरूप की बुद्धि से युक्त होकर देहात्म-भ्रम में पड़े हुए अपने आपको स्वरूप-स्थित करे। अपने आपको अवसन्न न करे, अर्थात् बिखेरे नहीं, अपने को उजाड़े नहीं।
आपने अपना ज्ञान बिखेर रखा है-थोड़ा लैबोरेटरी में, थोड़ा किताबों में और थोड़ा घर की गुरुजी में ! आपने अपना जीवन बिखेर रखा है-थोड़ा बैंक में, थोड़ा दुकान में, थोड़ा घर में। इस बिखराव को रोकिये ।
कैसे रोकें इस बिखराव को ? इसके लिए पहले एक निष्ठा जीवन में लानी चाहिए कि जो सत्य है, उसी को मैं जीवन में स्वीकार करूँगा । और सत्य वह है जिसमें कोई पारमार्थिक भेद नहीं है। इसका अर्थ है कि सम्पूर्ण जीवन को गुरु द्वारा उपदिष्ट परमार्थ-सत्य के अनुभव की दिशा में प्रवाहित किया जाना चाहिए ।
उक्त निष्ठा का एक सहज परिणाम होगा- अनासक्त जीवन । जो अपने जीवन को अपने लक्ष्य की ओर प्रवाहित कर रहा है वह मार्ग में कहीं अटक नहीं सकता। यह अटकना ही आसक्ति का परिचायक है। जहाँ सुख प्रतीत होता है और जिसको अपना आपा भोक्ता प्रतीत होता है, वहाँ वह व्यक्ति आसक्त हुए बिना नहीं रह सकता। विषय में सत्यत्व एवं रमणीयता की तथा विषयी में भोक्तृत्व की भ्रान्ति मिलकर आसक्ति को जन्म देती है। कहीं, कभी, किसी से चिपक जाने का नाम आसक्ति है। परन्तु जो गतिशील है उसके लिए देश, काल और वस्तु सदैव बदलते रहते हैं। फिर वह कहाँ, कब, किससे, क्यों और कैसे चिपकेगा ?
चार प्रकार की आसक्तियाँ होती हैं: कर्मासक्ति, फलासक्ति, कर्तृत्वासक्ति, और अकर्तृत्वासक्ति । सुख किसी विशेष कर्म से ही प्राप्त हो यह आग्रह कर्मासक्ति है। अरे बाबा, सुख को आने दो, उसके द्वार का आग्रह क्यों करते हो ? पतिदेव का स्वागत करो फिर चाहे वे इस द्वार से आवें या उस द्वार से, घर की कीमती कार से आवें या किराये की सामान्य टैक्सी से । कर्मासक्ति में कर्म का बन्धन है।
कर्ता और कर्म के बीच में कर्म की प्रेरणा होती है और कर्म और भोक्ता के बीच में कर्मफल होता है। जब प्रेरणा सुख होती है तब कर्मफल में भोक्ता सम नहीं रह पाता। कर्मफल प्रेरणा के अनुकूल होने पर राग उत्पन्न करता है और प्रतिकूल होने पर द्वेष । यही फलासक्ति है। जिसकी प्रेरणा कर्त्तव्य का पालन या भगवान् की प्रसन्नता या प्राप्त परिस्थिति का सदुपयोग है, वह सर्वत्र सुख का अनुभव कर सकता है, उसमें फलासक्ति नहीं रहती ।
कोई-न-कोई काम करते ही रहें यह आग्रह कर्तृत्वासक्ति है। और अपने आत्मा को अकर्ता मानकर कर्म न करने का आग्रह अकर्तृत्वासक्ति है।
विषय हो, कर्म हो, परन्तु आसक्ति न हो। तब आप कहीं बीच में अटकेंगे नहीं और अन्त में लक्ष्य पर पहुँच जायँगे ।
इस प्रकार (१) सत्यनिष्ठा तथा (२) अनासक्ति-योग-ये दो आवश्यक शर्तें हैं जो प्रत्येक मुमुक्षु के जीवन में अनिवार्य हैं। परन्तु मोक्ष सम्पादन के कुछ अन्य आवश्यक अंग भी हैं। वे हैं (३) पाण्डित्य (४) धैर्य (५) संन्यास एवं (६) आत्माभ्यास ।
सदसद् विवेकवती बुद्धि का नाम पण्डा है; वह बुद्धि जिसके पास है उस विवेकी पुरुष को पण्डित कहते हैं। मुमुक्षु में यह पाण्डित्य अपेक्षित है अन्यथा यह संभावना है कि उसकी कभी असत्य में ही सत्यबुद्धि हो जायेगी। शास्त्रों को घोट-पीसकर कण्ठाग्र कर लेना अथवा उनका अध्यापन या प्रवचन करने की सामर्थ्य का नाम पाण्डित्य नहीं है। ‘नायमात्मा प्रवचनेन लभ्यो न मेधया न बहुना श्रुतेन’ (मुण्डक० ३.२.३) यह श्रुति इस सम्बन्ध में स्पष्ट कथन करती है कि यह आत्मा प्रवचन, मेधा या बहुत सुनने से प्राप्त नहीं होता ।
सुख और दुःख दोनों को सहन करने का नाम धैर्य होता है। सुख सहन नहीं होता तो या तो हार्ट-फेल हो जाता है या बुद्धि उच्छृङ्खल हो जाती है। वह आदमी उपद्रव करने लगता है। हमको यह स्त्री चाहिए, यह भोग चाहिए – इस प्रकार की माँग बढ़ जाती है; और हम तो यह करेंगे, वह करेंगे- इस प्रकार कर्म अनियन्त्रित हो जाता है। इसी तरह जब दुःख सहन नहीं होता तो आदमी छाती पीट-पीटकर रोता है, पागल हो जाता है, डाकू हो जाता है या फिर उसका हार्टफेल हो जाता है। ‘समदुःखसुखं धीरं सोऽमृतत्वाय कल्पते (गीता २.१५) जो सुख-दुःख में सम है, वही धीर पुरुष है और वही अमृतत्व के योग्य होता है। यदि आप दुनिया में कुछ मिल जाने से उच्छृङ्खल हो जाते हैं और कुछ खो जाने से रोने लगते हैं तो आत्मचिन्तन कैसे करेंगे ?
जो विवेकी है, धीर है उसे सर्व-कर्म-संन्यास के लिए सम्मुख होना चाहिए। यह एक पुरुषार्थ है। मोक्ष के अतिरिक्त दूसरी वस्तुओं को प्राप्त करने का जो प्रयास है, वहाँ से उपराम होने का नाम सर्व कर्म-संन्यास है। जीवन में प्रयत्न तो रहे परन्तु दूसरी वस्तुओं को पाने के लिए प्रयत्न न रहे, अपनी सहज पूर्णता के लाभ के लिए प्रयत्न रहे, अपनी मुक्ति के लिए प्रयत्न रहे ।
गुरुमुख से वेदान्तशास्त्र का तात्पर्य-निश्चय करना श्रवण कहलाता है। उस श्रुत अर्थ का अनुकूल युक्तियों से चिन्तन तथा बाधक युक्तियों का खण्डन मनन कहलाता है। श्रवण और मनन किये हुए अर्थ में बुद्धि का तैल धारावत् प्रवाह निदिध्यासन कहलाता है। निदिध्यासन में विजातीय वृत्ति का तिरस्कार है और सजातीय वृत्ति का प्रवाह है। यह जो श्रवण, मनन, निदिध्यासन है इसी का नाम आत्माभ्यास है। अभ्यास माने दुहराना । आप जीवन में बार-बार किसको दोहराते हैं ? मकान-दुकान, रुपया, दोस्त, दुश्मन, इन्हीं अनात्मा को तो दुहराते हैं। यह अनात्मा का अभ्यास जो जीवन में प्रविष्ट हो गया है, उसके निवारण के लिए आत्माभ्यास करना पड़ता है कि ‘मैं नित्य-शुद्ध-बुद्ध-मुक्त ब्रह्म हूँ। मैं असंग हूँ, मैं साक्षी हूँ, इत्यादि ।’ इस अभ्यास से ही उस ज्ञानबल की उत्पत्ति होती है जिससे भ्रम की निवृत्ति होती है। केवल अपने को असंग साक्षी मान लेने से और अभ्यास न करने से भ्रान्ति निवृत्त नहीं होती ।
प्रश्न – आप सर्व-कर्म-संन्यास की बात कहते हैं किन्तु शास्त्र में तो कर्म करने का बड़ा भारी विधान है ? फिर भगवान् ने इन्द्रियाँ दी हैं तो कर्म और भोग के लिए ही तो दी हैं।
उत्तर– ठीक है, कर्म का विधान शास्त्रों में है, परन्तु उसका प्रयोजन भी समझना चाहिए। और कहो कि भगवान् ने पैर दिये हैं तो फिर चलते ही क्यों न रहें, विश्राम क्यों करें ? अरे भाई भगवान् ने पैर दिये हैं तो नींद भी तो उसीने दी है ! तो भगवान् ने इन्द्रियाँ दी हैं, ठीक है, परन्तु बुद्धि में प्रवृत्ति-निवृत्ति का विवेक भी तो उसी भगवान् ने दिया है। प्रयोजन-वश सभी प्रवृत्ति और निवृत्ति की संगति लग जाती है।
शास्त्र में कर्म का विधान है, परन्तु उसका एक प्रयोजन है, और वह प्रयोजन है चित्त की शुद्धि ।
पाप कर्मों के द्वारा, वासनापूर्ति (भोग) के द्वारा, अहंकार और नासमझी से किये गये व्यवहार द्वारा हमारा चित्त दूषित हो गया है। वह असत् और जड़ की ओर झुकता है और दुःख में ही सुख-बुद्धि कर बैठता है, बन्धन में ही मुक्ति समझता है, विलासिता में ही अमृतत्व के सपने देखता है। वह मोह के कारण देह-केन्द्रित हो गया है, अहं केन्द्रित हो गया है। छोटी-छोटी वस्तुओं और सिद्धान्तों में ही उसकी आसक्ति-बुद्धि हो गयी है। संक्षेप में वह कर्म-मल और वासना-विक्षेप से ग्रस्त हो गया है। अतः मोक्ष-सम्पादन की प्रक्रिया में शास्त्रीय कर्म-संविधान का प्रयोजन चित्त को उक्त दोषों से मुक्त करना है, जिससे चित्त का सहज झुकाव ज्ञान की ओर हो सके ।
बन्दूक से निशाना लगता है यह ठीक है, परन्तु पहिले बन्दूक को साफ करना पड़ता है। इसी प्रकार चित्त (सम्पूर्ण अन्तःकरण – मन, बुद्धि, चित्त, अहंकार) एक यन्त्र है, जिससे पूर्णतारूप मोक्ष पर निशाना लगाना है, परन्तु पहिले उस चित्त की सफाई, शुद्धि आवश्यक होती है।
शास्त्रीय कर्म मनुष्य को अधर्म, वासना और अहंकार से मुक्त करने के लिए हैं। किन्तु नित्य शुद्ध होने के अनन्तर उन कर्मों का न्यास भी आवश्यक हो जाता है, जिससे कर्मासक्ति और कर्तृत्वासक्ति का विनाश होता है।
मनमाने कर्म अहंकार को बढ़ाते हैं और सद्गुरु-सत्शास्त्र की आज्ञा से किया कर्म अभिमान को मिटाता है और अपनी प्रेरणा के मूल स्रोत को खोल देता है।
३. ब्रह्मविचार से मोक्ष
मुमुक्षा का उदय जिस चित्त में हो गया वह चित्त शुद्ध हो गया। जो चित्त शुद्ध आत्मा के चिन्तन के प्रति प्रवण हो गया वह चित्त शुद्ध है। अब आगे बढ़ने के लिए उसको सर्वकर्म-संन्यास आवश्यक ही है। क्योंकि कर्म का प्रयोजन जो चित्तशुद्धि था, वह तो पूरा हो गया और मोक्ष (अर्थात् ब्रह्मात्मैक्य-बोध) की सिद्धि करोड़ों कर्मों से भी नहीं हो सकती । वह तो विचार से ही सिद्ध होगी क्योंकि बन्धन और पृथक्त्व अज्ञान से, अविचार से ही सिद्ध है।
बड़ी अद्भुत बात है ! अपना आत्मा ही मोक्ष है और वह नित्य-शुद्ध-बुद्ध-मुक्त ही है। यदि मोक्ष अन्य होता, पृथक् देश में या पृथक् काल में होता तब तो कर्म से, भाव से वह प्राप्य होता, परन्तु उस दशा में न वह नित्य होता और न परमानन्द-स्वरूप ! फिर उसकी इच्छा भी कौन करता ? यदि वह अन्तःकरण के विनाश से सम्पन्न होता और स्वयं आत्मा भी उसके समकाल ही नष्ट हो जाता तब तो वह भयावह ही होता । जो नित्य न हो, ज्ञानस्वरूप और परमानन्दस्वरूप न हो और अपना आपा ही नहीं हो-वह कोई भी हो, मुमुक्षु का प्रेमास्पद नहीं हो सकता ।
जो अपना आपा होता है और नित्य परमानन्द-स्वरूप होता है, वह अज्ञान के कारण ही अन्य-सा, अनित्य-सा, दुःख-सा भासता है; ज्ञात होते ही वह जैसा है वैसा भासने लगता है। अतः मुमुक्षु को चित्त शुद्ध हो जाने पर केवल अपने अज्ञान-निवृत्ति के लिए ही प्रयत्न करना शेष कर्त्तव्य रह जाता है। भ्रान्ति अज्ञान-मूलक एक वृत्ति है जो अविचार से सिद्ध है। अतः उसकी निवृत्ति के लिए ज्ञानवृत्ति की आवश्यकता है और वह केवल विचार से ही सिद्ध होगी ।
रज्जु के अज्ञान से उदित जो सर्प-भ्रान्ति है जिसके कारण भय और दुःख उपस्थित होता है वह क्या लाठी प्रहाररूप कर्म यज्ञ-दान-तपरूप अनुष्ठान या सर्प को असर्परूप भाव करने से दूर हो जायेगी ! या समाधि लगाने से शान्त हो जायेगी? नहीं होगी। वह तो भलीभांति रज्जु के स्वरूप-विचार से ही दूर होगी। इसी प्रकार शुद्ध आत्मस्वरूप में अज्ञान के कारण जो अन्यथासिद्धिरूप मनुष्य-भ्रान्ति, ब्राह्मणादि वर्णभ्रान्ति, सन्यासादि आश्रम-भ्रान्ति, जीवरूप कर्तृत्व-भोक्तृत्व-भ्रान्ति, देह-देही-भावरूप नैसर्गिक परिच्छिन्नता-भ्रान्ति प्रतीत हो रही है, वह किसी कर्म से, भाव से, योग से निवृत्त नहीं होगी। वह तो केवल इन भ्रान्तियों के निवर्तक शास्त्र और गुरु-वाक्यों के भलीप्रकार श्रवण, मनन, निदिध्यासनरूप विचार से ही निवृत्त होगी।
अतः गुरु-शरणागति स्वीकार करके आत्मा और ब्रह्म की एकता के विचार में तत्पर रहना ही मुमुक्षु का मुख्य कर्त्तव्य है और मोक्ष-प्राप्ति का यही एकमात्र उपाय है।