ब्रह्म विचार की सामग्री

!! वेदान्त-बोध !!

प्रबोधक :
अनन्तश्री स्वामी अखण्डानन्द सरस्वतीजी महाराज

प्रथम खण्ड – अधिकारी निरूपण

अध्याय 1 -> मनुष्य-जीवनमें मुमुक्षा दुर्लभ है

अध्याय 2 -> मुमुक्षा को पूर्तिका उपाय – ब्रह्मविचार

अध्याय 3 -> ब्रह्म विचार की सामग्री


( साधन-चतुष्टय एवं चित्तशुद्धि )

मानव शरीरमें मुमुक्षा होना दुर्लभ है। परन्तु उससे भी दुर्लभ है मुमुक्षाका सच्चा होना । लोग बन्धनसे तो छूटना चाहते हैं और परमानन्दकी प्राप्ति भी करना चाहते हैं परन्तु चाहते हैं उसको उसी प्रकार जैसे किसी विषयको चाहते हैं अर्थात् किसी कर्मसे या भावसे या अवस्थामें । मोक्ष आत्माका स्वरूप ही है और वह केवल अज्ञानसे ही अप्राप्त है – इसमें उनकी आस्था नहीं होती। बिना आत्माका मोक्ष कैसा ? आत्मा परिच्छिन्न प्रतीत होते हुए भी देश-काल-वस्तुसे अपरिच्छिन्न ब्रह्म ही है, इस ज्ञानसे सिद्ध जो मोक्ष है उसकी इच्छा अत्यन्त दुर्लभ है। यही सच्ची मुमुक्षाका स्वरूप है और इसकी पूर्तिका साधन किसी प्रकारका कोई कर्म, भाव या अवस्था नहीं अपितु आत्मा और ब्रह्मकी एकताका विचार है। यह विचार ही सर्व वेदान्तों (उपनिषद् वाक्यों) का विषय है।

१. औपनिषद ज्ञान

वेदकी व्याख्या दो भागोंमें विभक्त की गयी है। पहले भागको ‘विधि-भाग’ कहते हैं । उसमें हमारे जीवनका अनुशासन है। शासनानुसारी जीवनसे वासनाएँ निवृत होती हैं और जीवनमें सुख-शान्तिका विकास होता है। इस प्रकार हमारे कर्त्तव्य-अकर्त्तव्यका निर्णय करनेवाला वेदका यह विधि-विभाग शब्दराशि-प्रधान है। कानून (विधि) में अक्षर ही देखे जाते हैं।

वेदका दूसरा भाग यथार्थ वस्तुके अनुसंधान करनेके लिए है। किन्तु अनुसंधानकी प्रक्रिया यहाँ लोकसे विलक्षण है । सृष्टिमें जितने पदार्थ हैं वे इन्द्रिय, मन और बुद्धिसे ज्ञात होते हैं, मालूम पड़ते हैं। किन्तु जिसको यह मालूम पड़ते हैं वह किसी भी इन्द्रिय, मन या बुद्धिके द्वारा मालूम नहीं पड़ता । एक-एक इन्द्रिय अपने-अपने विषयमें तो प्रमाण हैं परन्तु वे वस्तुका संपूर्ण दर्शन नहीं करातीं। सब मिलकर भी संपूर्ण दर्शन नहीं करात्रीं क्योंकि चित्तमें जिन वस्तुओंका संस्कार हो उनको ही हम जान सकते हैं। इसमें भी कार्य-कारणता केवल बुद्धि द्वारा ही गम्य है। अन्वय-व्यतिरेकके द्वारा यह कार्य-कारणता ज्ञात होती है कि ‘जिससे पैदा हुआ और जिसमें लीन होगा वह कारण और जो वस्तु पैदा हुई वह कार्य; अथवा जिसके बिना कोई वस्तु नहीं रहती और वस्तुके बिना भी जो रहता है वह कारण है तथा स्वयं वस्तु कार्य है। लेकिन यह कारण और कार्य, यह पैदा होना और लीन होना भी बुद्धिके सामने ही है और बुद्धि भी स्वयं पैदा होती है और लीन होती है। ऐसी अवस्थामें अपनी बुद्धि, अनुभूति या विचार द्वारा बुद्धिके प्रकाशकका (साक्षीका) (जिसको यह सब मालूम पड़ रहा है उसका पता लगानेका प्रयत्न निष्फल हो जाता है। साक्षी दृश्य नहीं बन सकता ।

स्वयं साक्षी भी अपनेको देखना चाहे तो बुद्धि-वृत्तिसे तादात्म्य करके इतना तो जानेगा कि ‘मैं हूँ’ (अहमस्मि) किन्तु इस वृत्तिका भी वह साक्षी ही रहेगा। ‘मैं नहीं हूँ’ ऐसा कभी नहीं जान सकता। जाग्रत्-अवस्थामें ‘मैं हूँ’ यह वृत्ति रहेगी; स्वप्नावस्थामें भी यह वृत्ति रह सकती है परन्तु सुषुप्ति-अवस्थामें यह वृत्ति भी नहीं रहेगी। इस तरह साक्षोका स्वरूप ‘मैं हूँ’ और ‘मैं नहीं हूँ’ इन दोनों वृत्तियोंसे विलक्षण मालूम पड़ता है। वह अनन्त है या सान्त, विभु है या परिच्छिन्न, अद्वितीय है या सद्वितीय- यह बात किसी भी युक्तिसे, प्रमाणसे या स्वयं साक्षीसे भी नहीं ज्ञात हो सकती। इसी साक्षीके स्वरूप-ज्ञान के लिए वेदान्तोंकी आवश्यकता पड़ती है।

जितने उपासनाके मार्ग हैं वे सब वक्ताकी प्रधानतासे होते हैं इसलिए उपासनावाक्य सब श्रद्धामूलक ही होते हैं। परन्तु औपनिषद् ज्ञान वक्ताकी प्रधानतासे नहीं, वर्ण्यकी प्रधानतासे है। जो वर्णन किया गया वह सत्य है, किसने प्रवचन किया, यह महत्त्वपूर्ण नहीं है। वेदमें यदि ‘अग्निहमस्य भेषजम्’ (अग्नि ठंडकी भेषज है) कहा गया तो वह वेदकी महिमा नहीं, वह तो लौकिक व्यवहार है। जिस बातको हम देख-सुनकर या किसी दूसरे प्रमाणसे जान सकते हैं, उसका वर्णन करनेमें वेदकी विशेषता नहीं। जिसे लोकमें अनुभव या इन्द्रिय-प्रमाणसे जान न सकें, जिसमें भ्रम-प्रमाद न हो, जिसमें ठगने-ठगानेकी सम्भावना न हो, ऐसी वस्तुको ठीक-ठीक बता देना ही वेदकी विशेषता है।
वेद ब्रह्मको बताता है। ब्रह्म सब देश, सब काल और सब वस्तुओंमें रहकर भी उन सबसे परे है। भेदोंकी प्रतीति होनेपर भी वह भेद रहित है। “मैं, तू, वह” का भेद नहीं है। ऐसी अपरिच्छन्न बह्म-वस्तु किसीका विषय नहीं हो सकती तथापि उपनिषदोंकी ‘नेति-नेति’ प्रक्रियासे उसका आत्मासे अभेदका अनुभव होता है। इसी कारण ब्रह्मात्मैक्य-बोधमें ही वेदका प्रामाण्य है तथा इसीका बोध करानेके लिए वेदके शंसन-भागकी जिसको उपनिषद् या वेदान्त भी कहते हैं, परम्परा चली आ रही है।

‘उपनिषद्’ का अर्थ है ब्रह्मविद्या, और वह गुरुके पास जाकर ही प्राप्त होती है। उप + नि सद् उपनिषद् । ‘उप’ = उपसंगम्य, अर्थात् विधिपूर्वक गुरुकी सेवामें उनके पास उपस्थित होकर । ‘नि’ निश्चयेन, अर्थात् सम्पूर्ण दृश्य पदार्थ, ज्ञाता-ज्ञान-ज्ञेय आदि रूप जितनी भी त्रिपुटियाँ भासती हैं उन सबको निचोड़कर । ‘सद्’- ज्ञानम्, अर्थात् उनमें जो एक-रस ज्ञानस्वरूप आत्ना है वह अद्वितीय ब्रह्म है, इस विद्याका नाम उपनिषद् है। ‘सद्’ धातुके और भी अर्थ हैं – षद्द्ध विशरणगत्यवसादनेषु । सद् अर्थात् विकीर्णकर देना, उजाड़ देना, हिंसा करना, अथवा गति, ज्ञान । अतएव ‘उप’ अर्थात् तत्त्वके अत्यन्त निकट बैठाकर जो ‘नि’ अर्थात् निःशेषतया ‘सद्’ अर्थात् संसारको, बन्धनको विनष्ट कर दे, उस विद्याका नाम ‘उपनिषद्’ है। प्रतिपाद्य-प्रतिपादक सम्बन्धसे वेदके जिस भागमें यह विद्या र्णित है उस वेद-भागको भी ‘उपनिषद्’ कहते हैं। इन्हींको ‘वेदान्त’ भी कहा जाता है। सत्यके दिग्दर्शक इस वेद-भागमें अर्थराशिकी प्रधानता है, शब्द या उसके वक्ता या उसकी भाषाकी नहीं ।

इस प्रकार ब्रह्मात्मैक्य-बोध एक ओर सत्य वस्तुका ज्ञान कराता है तो दूसरी ओर अनर्थके मूल संसार-बुद्धिका ही विधूनन करके सभी बन्धनोंसे मुक्त करता हैं। और यही तो मोक्षका स्वरूप भी है।

यदि आप अपनेको कर्ता जानते हैं तो उसका तात्पर्य इतना ही है कि आपको पाप नहीं पुण्य-कर्म करने चाहिए। यदि भोक्ता जानते हैं तो आपको दुःख नहीं सुख मिलना चाहिए, इसीमें तात्पर्य है। यदि आप अपनेको द्रष्टा, असंग साक्षी जानते हैं तो आप राग-द्वेषसे परे हैं- इसी में इसका तात्पर्य है। परन्तु वेदान्त आपको साक्षी ही नहीं ब्रह्म बताता है; इसका तात्पर्य है कि आप अखण्ड हैं, आपमें सारे भेद मिथ्या है।
सारे भेद-भ्रम मिट जानेपर साम्प्रदायिकता, प्रान्तीयता, राष्ट्रीयता आदिका व्यामोह, कम्यूनिज्म, सोशलिज्म जैसे वाद, जिनके कारण विश्व में संघर्ष होते हैं वे सब अनर्थ अपने आप दूर हो जाते हैं। अपनेको अद्वितीय ब्रह्म जान लेनेपर एक ब्रह्माण्डके निवासी ही नहीं, अनन्तकोटि ब्रह्माण्डोंके निवासी, मम्पूर्ण मायाको सृष्टि ही अपना स्वरूप हो जाती हैं। इसमें न कहीं अहंकार है, न स्पर्धा, न राग-द्वेष । ऐसा जीवनमुक्त, शान्त जीवन व्यतीत करने, सम्पूर्ण कलहोंसे विमुक्ति पाने और सम्पूर्ण पापों-दुःखोंसे मुक्त होनेके लिए यह जानना आवश्यक है कि ‘मैं कौन हूँ’। वेदान्त-ज्ञानके बादकी रहनी सरल, सहज और निष्कपट होती है। तब किसीके प्रति अन्याय या विद्वेषकी भावना नहीं रहती। शान्ति हो शान्ति रहती है। पूर्ण स्वतन्त्रता पानेके लिए वेदान्त-विद्या है। उसे प्राप्त कर लेनेपर धर्म-कर्म हमें विवश करके स्वर्ग-नरक नहीं ले जा सकते। ईश्वर भी हमें कहीं जानेको विवश नहीं कर सकता । वेद भी उसे कोई आज्ञा नहीं दे सकता कि ‘तुम्हें यह करना पड़ेगा’। वेद ‘कर्ता’ के लिए विधान करता है और ईश्वरके साम्राज्यमें तुम तबतक अनुशासित हो जबतक तुम माया-प्रकृतिको पकड़े हुए हो । ईश्वर अपने स्वरूपभूत चैतन्यका नियन्ता नहीं है, उपाधिका नियन्ता है। जीव अन्तःकरणकी उपाधिसे “मैं-मेरा” की रस्सीसे बँधा है। ईश्वर कर्मानुसार उपाधिका नियन्त्रण करता है। जीव उपाधिसे तादात्म्य होनेपर ईश्वर द्वारा अपना नियन्त्रण मानता है। आत्माका इनसे असंग होनेके कारण कहीं कोई सम्बन्ध नहीं है।

इस प्रकार वेदान्तोक्त ब्रह्मात्मैक्य-बोधकी प्राप्ति ही मोक्षकी प्राप्ति है। जिसका अन्तःकरण शुद्ध है उस मुमुक्षुके लिए गुरुके सान्निध्य में ब्रह्म-विचार ही मोक्ष-प्राप्तिका साधन है। और ब्रह्मविचार तब होगा जब ब्रह्म-जिज्ञासा होगी ।

आचरणकी अशुद्धि कर्म-मल है, राग-द्वेष वासना-मल है, चित्तकी चंचलता विक्षेप है, बुद्धिका भ्रम आवरण है। ये सब अशुद्ध अन्तःकरणके चिह्न हैं।

२. साधन-चतुष्टय

ब्रह्मविचारसे पूर्व जो साधन नियमसे हमारे जीवनमें होना आवश्यक है उसका विचार भी आवश्यक है। पूर्ववर्ती सामग्रीके बिना उत्तरवर्ती फल नहीं हुआ करता, यह सिद्धान्त सर्वविदित है। जैसे एक दीपकको
जलानेके लिए घी, बत्ती, माचिस आदि सामग्री अपेक्षित है, उसके बिना दीपक जल नहीं सकता, इसी प्रकार ब्रह्मज्ञानका दीपक जलानेके लिए आपको कुछ साधन सामग्रीकी आवश्यकता है। वेदान्त-शास्त्रमें इसको ‘साधन-चतुष्टय’ के नामसे कहा जाता है। जिसमें ये साधन उपस्थित रहते हैं वह वेदान्तका मुख्य अधिकारी है।

साध्यके अनुरूप साधन और साधनके अनुरूप सामग्री एकत्र होने पर ही साध्यकी प्राप्ति होती है। यहाँ साध्य ‘मोक्ष’ है, ‘बह्मविचार’ साधन है और ब्रह्मविचारके अनुरूप सामग्री ‘साधन-चतुष्टय’ है।

जब हम मोक्षका स्वरूप ‘अनर्थकी निवृत्ति और परमानन्दकी प्राप्ति कहते हैं तो ऐसा हम वासनाओंके समूहीकरण तथा एकतत्त्वके प्रति अभिमुखीकरणके लिए ही कहते हैं। वस्तुतः अविद्या-निवृत्तिसे उपलक्षित आत्मतत्त्वका नाम ही मोक्ष है।

अतः यहाँ साध्य अविद्या-निवृत्ति ही है और ब्रह्मविचार उसका साधन है। निम्नलिखित चार साधनों के समुदायको साधन-चतुष्टय कहते हैं :-

(१) विवेक (२) वैराग्य (३) षट्-सम्पत्ति और (४) मुमुक्षा

(क) विवेक

लोक-परीक्षाकी शक्तिको विवेक कहते हैं। ‘विचिर-पृथग्भावे’ से ‘विवेक’ शब्द बनता है। दो भिन्न-भिन्न चीजें जब एकमें मिल गयी हों तो उनको पृथक्पृथक् करके जाननेको शक्तिका नाम विवेक होता है । यहाँ नित्य और अनित्य मिल गये हैं, सत्य और मिथ्या (असत्य) मिल गये हैं, सुख और दुःख मिल गये हैं, चेतन और जड़ मिल गये हैं। इसलिए हमारे जीवनमें विपरीत बुद्धियोंने घर कर रखा है। हम हैं तो सच्चिदा-नन्दधन परब्रह्म और मानते हैं अपनेको असज्जडदुःखभेदरूप देह । यह जगत् ( जिसमें हमारा देह भी सम्मिलित है) है तो असज्जडदुःखभेदरूप मिथ्या परन्तु हम मानते हैं इसको नित्य एवं सुखरूप सत्य । इसलिए ब्रह्म-विचारसे पूर्व बुद्धिमें यह विवेक होना आवश्यक है कि नित्य क्या है, अनित्य क्या है, सत् क्या है, असत् क्या है ? सुख क्या है, दुःख क्या है ? जड़ क्या है, चेतन क्या है ? अल्प (परिच्छिन्न) क्या है, भूमा (अपरिच्छिन्न) क्या है? कार्य क्या है, कारण क्या है ? विवेकके लिए इन सबके लक्षण बनाने पड़ेंगे और एककी दूसरेसे विलक्षणता भी समझनी पड़ेगी। इन सबके लिए सूक्ष्म दृष्टि-सम्पन्न जिज्ञासु होना चाहिए ।
एक दृश्य है, एक द्रष्टा है जो भी इन्द्रियों, मन और बुद्धिके द्वारा जाना जाता है, जाना जा सकता है, वह सब दृश्य है, विषय है। जिसके द्वारा यह सब जाना जाता है, वह है द्रष्टा, विषयी । सम्पूर्ण दृश्य ‘यह’ है और द्रष्टा ‘मैं’ है। स्पष्ट है कि दृश्य अनेक हैं, विनाशी हैं, परिवर्तनशील हैं अनित्य हैं। दृश्य पदार्थ कभी दिखते हैं, कभी नहीं दिखते, किन्तु द्रष्टा सदैव रहता है। दृश्य और दृश्याभाव दोनों द्रष्टाके बिना अनुभवमें नहीं आते जब कि द्रष्टा दृश्यकी अपेक्षा नहीं रखता । इस प्रकार द्रष्टामें दृश्यका नित्य अभाव ही है और दृश्याभाव द्रष्टासे पृथक् नहीं है। दृश्य अपने अत्यन्ताभावके अधिष्ठानमें (द्रष्टा में) भासमान होनेसे मिथ्या है और द्रष्टा सत्य है।

पुनः द्रष्टा ज्ञानस्वरूप है, अतः चेतन हैं। दृश्य ज्ञानका विषय होनेसे जड़ है। जो जड़ है, अनेकरूप है, विनाशी वह सुख हो नहीं सकता और सुख अपने प्रकाशकसे पृथक् अनुभव नहीं हो सकता। अतः द्रष्टा (आत्मा) सुखस्वरूप है और दृश्य दुखःरूप ।

वेदान्तोंमें विवेक कई प्रकारके हैं- १. द्रष्टा दृश्य-विवेक (जिसका वर्णन हो चुका) २. नित्यानित्यवस्तु-विवेक ३. सदसत्-विवेक ४. कार्य-कारण-विवेक ५. सुख-दुःख-विवेक ६. अधिष्ठान-अध्यस्त-विवेक इत्यादि ।

श्रुतिका कहना है कि इस लोकमें देखो ! यहाँ जो भी कर्मसे बनाया जाता है वह अनित्य होता है, क्षयी होता है। जैसे यहाँ है वैसे ही पुण्य-कर्मोंके फलस्वरूप प्राप्त होनेवाले लोक भी अनित्य होंगे, क्षयी होंगे।’ लोकोंकी इस प्रकार परीक्षा करके विद्वान्‌को कर्मसे वैराग्य हो जाता है। भला नित्य-मोक्ष अनित्य कर्मका फल कैसे हो सकता हैं ?२ जो कर्मसे बनता है वह अनित्य है। जो दृश्य है वह नष्ट होनेवाला है। जो अध्यस्त है वह अनित्य है। जो प्रतीत होता है वह अनित्य है’ ।

१. तद् यथेह कर्मचितो लोकः क्षीयते, एवमेवामुत्र पुण्यचितो लोकः क्षीयते ।

( छान्दोग्य० ८.१.६)

२. परीक्ष्य लोकान् कर्मचितान् ब्राह्मणो निर्वेदमायात् नास्त्यकृतः कृतेन ।

( मुण्डक० १.२.१२)

३. यत्कृतकं तदनित्यम् । ४. यद् दृष्टं तन् नष्टम् । ५. यदध्यस्तं तदनित्यम् ।

६. यत्प्रतीतं तदनित्यम् ।

वेदान्तविद्याके अधिगम में विवरण-प्रस्थान और भामती-प्रस्थान दो प्रसिद्ध प्रक्रिया-प्रस्थान हैं। इनमें सिद्धान्तका अन्तर नहीं है किन्तु अधिकारी-भेदसे प्रक्रिया-भेद है। विवरण-प्रस्थानके आचार्य हैं श्री शंकराचार्य भगवान्के शिष्य श्री पद्मपादके शिष्य श्रीप्रकाशात्मा यति तथा भामती-प्रस्थानके आचार्य हैं पण्डितप्रवर श्रीवाचस्पति मिश्र ।

विवरण-प्रस्थानके अनुसार श्रवण-मात्रसे ब्रह्मज्ञान होता है। अतः वे लोग ‘विवेक’ के अन्तर्गत सदसत्-विवेक और कार्यकारण-विवेकको भी सम्मलित करते हैं। परन्तु भामती-प्रस्थानके अनुसार श्रवणके अनन्तर मनन-निदिध्यासनके पश्चात् ही तत्त्वज्ञान होता है। अतः वे लोग केवल नित्यानित्यवस्तु-विवेकको हो, जिससे जीवनमें त्याग-वैराग्य आता है, विवेक मानते हैं। श्रीशंकराचार्य भगवान् कहते हैं कि ‘ब्रह्म सत्य है और जगत् मिथ्या है-ऐसा जो निश्चय है वही नित्यानित्यवस्तु-विवेक कहलाता है। इसलिए सदसत्-विवेक और कार्य-कारण विवकको भी विवेकके अन्तर्गत ही समझना चाहिए।

सत्य क्या और मिथ्या क्या ? यहाँ संकेतमें बताया जाता है। वेदान्त में सत्यका लक्षण है अबाध्यत्वं सत्यत्वम् । किसी भी देश-काल-वस्तु-अवस्था में जिसके नास्तित्वका (नहीं होनेका) बोध न हो सके उसका नाम सत्य है। ‘मैं नहीं हूँ’ ऐसा बोध कभी किसीको नहीं हो सकता। इसलिए ‘मैं’ पदका जो सच्चा अर्थ है वही सत्य है।

‘कारणावस्थामें जो रहे सो सत्य’ या ‘जो अनादि हो सो सत्य’ या ‘जो प्रमाणका विषय हो, अबाधित हो तथा अन्य किसी प्रमाणका विषय नहो सो सत्य-ये अन्य मतावलम्बियोंकी परिभाषाएँ हैं; परन्तु वे ब्रह्मात्मैक्य-बोधरूप सत्यके साक्षात्कारमें सहायक नहीं हैं तथा दोषपूर्ण भी हैं। अतः उनका वर्णन यहाँ अपेक्षित नहीं है।

असत्य अथवा मिथ्याका क्या लक्षण है वेदान्तमें ? अपने अभावके अधिकरणमें जो वस्तु भासती है वह मिथ्या होती है : स्वाभावाधिकरणे

७. ब्रह्म सत्यं जगन्मिथ्ये त्येवं रूपो विनिश्चयः ।
सोऽयं नित्यानित्य वस्तुविवेकः समुदाहृतः ॥ (वि० चू० २०-२१) ।

भासमानत्वम् मिथ्यात्वम् । अर्थात् जो वस्तु जहाँ भासती है यदि वहाँ वह नहीं है तो वह वस्तु उसमें मिथ्या होती है। भासती तो है, परन्तु मिथ्या है। जैसे रास्ते में चलते हुए देखा कि दूरसे कोई महात्मा आरहे हैं। उत्सुकता हुई। पास जाकर पता लगा कि वह तो श्रीमतीजी गेरुआ साड़ी पहने चली आरही हैं। अब यहाँ पुरुषका भास हुआ स्त्रीमें, अर्थात् पुरुषका भास वहीं हुआ जहाँ पुरुष नहीं था। अतः वहाँ पुरुष मिथ्या भासमान था और जब स्त्रीको देखा तो पुरुष-भ्रम मिट गया। भ्रम भी अपने हृदयमें था और यथार्थ-ज्ञान भी अपने हो हृदयमें हुआ। इसलिए ज्ञान-निवर्त्यत्वम् मिथ्यात्वम् जो यथार्थ ज्ञानसे निवर्त्य हो जाय वह मिथ्या, यह चेतनकी प्रधानतासे मिथ्यात्वका लक्षण है। पहला प्रमेय-प्रधान लक्षण है और दूसरा प्रमाताकी प्रधानतासे लक्षण है।

इस प्रकार सुषुप्तिमें ‘मैं’ पदका अर्थ आत्मा तो रहता है परन्तु ‘यह’ पदका अर्थ जगत् नहीं रहता । अर्थात् जगत् उसी ‘मैं’ में भासता है जहाँ वह नहीं है इसलिए मुझ आत्मामें यह जगत् मिथ्या है। सृष्टि-प्रक्रियानें भी सदेव सोम्येदमग्र आसीत् एकमेवाद्वितीयम् इस छान्दोग्य श्रुतिके अनुसार सृष्टिसे पूर्व एक अद्वितीय ब्रह्म ही था और यतो वा इमानि भूतानि जायन्ते येन जातानि जीवन्ति यत्प्रयन्ति अभिसंविशन्ति तद् विजिज्ञासस्व तद् ब्रह्म इस तैत्तिरीय श्रुतिके अनुसार है कि जिससे जगत्की उत्पत्ति. स्थिति है और जिसमें अन्ततः यह जगत् लीन हो जाता है वह ब्रह्म है। इससे सिद्ध है कि ब्रह्म तो सत्य है और जगत् मिथ्या है।

दूसरे-दूसरे सिद्धान्तोंमें विवेकका अर्थ दूसरा-दूसरा है। श्रीरामानुज-सिद्धान्तमें विवेकका अर्थ है-आहारका विवेक, माने आहारकी शुद्धि-अशुद्धिक विवेक । उनका कहना है कि शुद्ध भोजन करेंगे तो आपका मन शुद्ध होगा और अशुद्ध भोजन करेंगे तो मन अशुद्ध होगा। इसके अनुसार भोज्य वस्तु तब स्वभावसे शुद्ध होती है जब उसमें कोई अशुद्ध वस्तु मिलायी न गयी हो, उसे अशुद्ध बर्तनमें न बनाया गया हो, अशुद्ध अवस्थामें न बनाया गया हो और अशुद्ध कमाईका न हो।

८. इसको ऐसे भी कहते हैं- अपने अधिष्ठानमें जहाँ जो वस्तु दीख रही है उसी अधिष्ठानमें उसका अत्यन्ताभाव रहता है। अपने अभावके प्रतियोगी होनेसे

वस्तु मिथ्या है : स्वाधिष्ठाननिष्ठात्यन्ताभावप्रतियोगित्वं मिथ्यात्वम् ।
योग-दर्शनमें और सांख्यमें द्रष्टा दृश्य-विवेक होता है। यह सुख-दुःखके विवेकसे प्रारम्भ होता है तथा द्रष्टा और दृश्यकी अत्यन्तिक भिन्नताके ज्ञान (विवेक ख्याति) में पर्यवसित होता है। इनका कहना है कि आनेवाले दुःख त्याज्य हैं और सुख कहीं है ही नहीं। क्योंकि जो सुख भी है वह परिणाममें तृष्णा जनित दुःख, भोगमें साधन-सम्पादन-जनित दुःख, भोगोत्तर कालमें सुखसंस्कार जनित राग-द्वेषका दुःख और सत्त्व-रज-तमकी वृत्ति विरोध-दुःखको जन्म देता है’। असल में भामतो-प्रस्थानके अन्तर्गत विवेककी व्याख्यामें सुख-दुःख विवेकका समावेश हो जाता है।

धार्मिक लोग धर्माधर्मका विवेक करते हैं। वेदान्तके विवेकको इन सबसे पृथक् करके विविक्त रूपमें समझना चाहिए ।

(ख) वैराग्य

विवेकका फल है एक निश्चयपर पहुँचना। आप सोच-विचार तो करें परन्तु किसी निश्चयपर न पहुँचें तो विवेक क्या हुआ ? ‘देह असत्, अनित्य, जड़ और दुःखरूप है और इसका साक्षी मैं सत्, नित्य, चेतन और आनन्दरूप हूँ’ यह निश्चय ही विवेक है। ‘ब्रह्म सत्य है और जगत् मिथ्या है’ यह निश्चय ही विवेक है। इस विवेकका पर्यवसान इस निश्चय ज्ञानमें होता है कि ‘जो वस्तु बाहरसे हमारे भीतर आयेगी वह निकल जायेगी । जो अभी नहीं है वह पैदा होगी और मर जायेगी। जो मैं नहीं होऊँगा वह मिलने पर बिछुड़ जायेगा। देशसे पकड़कर लायी गयी वस्तु भाग जायेगी। कालमें उत्पन्न वस्तु मर जायेगी। अपनेसे अन्य वस्तुके संयोगका वियोग अवश्यम्भावी है। अतः कर्मसे. प्राप्त अथवा उत्पन्न प्रत्येक वस्तु, देश या काल नश्वर होगा। वह ब्रह्मके जिज्ञासु में कर्मसे उत्पन्न होनेवाली सभी इहलौकिक-पारलौकिक वस्तुओं और परिस्थितियोंसे निर्वेद अर्थात् वैराग्य उत्पन्न करेगा। विवेकका फल वैराग्य है।

वैराग्य माने राग-द्वेषकी शिथिलता – न किसीसे दोस्ती और न किसीसे दुश्मनी । लेकिन वैराग्य माने क्रोध और घृणा नहीं होता। हमारे

16 ९. कुत्रापि कोऽपि सुखीति । सांख्य दर्शन ६.७ ।

१०. परिणामतापसंस्कारदुःखैर्गुणवृत्तिविरोधाच्च दुःखमेव सर्वं विवेकिनः । (योग साघन० १५)

११. कि नाम वैराग्यम् ? अदृढरागद्वेषवत्त्वम् ।

जीवनमें राग-द्वेष बहुत कमजोर होने चाहिए, प्रबलता आत्मशक्तिकी होनी चाहिए, राग-द्वेषको नहीं। यह होता है विवेक-निष्ठासे । देहसे विविक्त आत्मा और जगत्से विविक्त परमेश्वरके प्रति निष्ठा होनेसे वैराग्य होता है।

वैराग्य माने नंगा रहना, पेड़के नीचे रहना इत्यादि नहीं होता ! आपके मनमें जब शान्ति आने लगे तब समझना कि वैराग्य आगया। इन्द्रियोंमें चंचलता कम हो जाय, मनमें संशय, विपर्यय कम हो जायें, कर्माधिक्यमें रुचि कम हो जाय, जीवनमें सहनशीलता बढ़ जाय, गुरु, शास्त्र, ईश्वरपर श्रद्धा बढ़ जाय, तब समझना कि वैराग्यका उदय हुआ है

अपने आत्माके अतिरिक्त किसी भी अन्य वस्तुपर आस्था होना वैराग्यके विपरीत है। आत्माके सिवा ब्रह्मा-विष्णु-महेशपर भी अनास्था उत्पन्नकर अभ्यासजन्य समाधिपर भी अनास्था उत्पन्न कर देना और स्वर्ग-बैकुण्ठपर भी अनास्था उत्पन्न कर देना- यह वेदान्तके वैराग्यका लक्षण है, जिससे मनुष्य आत्मनिष्ठ हो जाता है। आत्मनिष्ठ होनेके लिए अन्यनिष्ठताका परित्याग करना पड़ता है।

धर्ममें, अधर्मसे वैराग्य और धर्मसे राग होता है। भक्ति में, ईश्वरा-तिरिक्तसे वैराग्य और ईश्वरसे राग होता है। योगमें, त्रिगुणके कार्योंसे वैराग्य होता है ! वेदान्त में आत्माके सिवाय सबसे वैराग्य होता है।

भक्तिशास्त्र में वैराग्य और भक्तिका अत्यन्त निकट सम्बन्ध है। तुलसीदासजीके मतमें ज्ञान और वैराग्य भक्तिकी आँखें है’२ ।

भागवतकारके मतमें ज्ञान और वैराग्य भक्तिके पुत्र हैं। ‘३

कुछके मतमें भक्तिका परिणाम वैराग्य है तो कुछके मतमें भक्तिका शृङ्गार वैराग्य है। वृन्दावनी रसिकोके मतमें भक्तिका शृङ्गार वैराग्य है परन्तु भगवान्को भक्ति प्यारी है चाहे वह शृङ्गारयुक्त हो या न हो। रसिकोंके वैराग्यका विवेक ‘माधुर्यकादम्बिनो’ में विश्वनाथ चक्रवर्तीने किया है।

१२. ज्ञान विराग नयन उरगारी (रामचरितमानस )

१३. अहं भक्तिरिति ख्याता इमौ मे तनयौ मतौ ।

ज्ञानवैराग्यनामानौ कालयोगेन जर्जरौ ।। (भाग० माहात्म्य १.४५)
योग-दर्शनकारने वैराग्यके दो भेद माने हैं अपर वैराग्य और पर वैराग्य । देखे और सुने हुए, इहलौकिक एवं पारलौकिक विषयोंमें वितृष्णा (अनिच्छा) का नाम अपर वैराग्य है। १४ और पुरुष और प्रकृति विषयक विवेक ज्ञानके उदय होनेपर जो गुणोंमें ही वितृष्णा हो जाती है वह पर वैराग्य है।

अपर वैराग्यके भी चार भेद करते हैं यतमान, व्यतिरेक, एकेन्द्रिय और वशीकार । १६

केवल अनित्यके ज्ञानसे वैराग्य नहीं होता ! अनित्यमें जब दोष-बुद्धि, दुःख-वृद्धि होती है तब वैराग्यमें शक्ति आती है। भगवान् बडी कृपा करके वैराग्य देते हैं। जीवनमें वैराग्यके जो प्रसंग आते हैं वे बड़े दुर्लभ हैं। शक्तिहीन वैराग्य अपने आगेकी संतति नहीं चलाता। यदि आपके वैराग्यमें त्याग और ग्रहणकी शक्ति नहीं है, माने आप यदि सत्यको ग्रहण करके नहीं बैठ सकते और निश्चय किये हुए असत्यका त्याग नहीं कर सकते तो आपका वैराग्य शक्तिहीन है, वह ब्रह्मात्मैक्य-बोध तक नहीं पहुँचा सकता । दोषदृष्टिपूर्वक वैराग्य शक्तिशाली होता है।

वैराग्य असंगता नहीं है। असंगता आत्माका धर्म है और वैराग्य अन्तःकरणमें रहता है। विरक्त चित्तवृत्तिमें असंगता प्रतिबिम्बित होती है। किन्तु विरक्त साक्षीमात्र नहीं होता; जिससे वैराग्य होता है उसको वह देखता भी है और त्यागनेका सामर्थ्य भी रखता है।

१४. दृष्टानुश्रविकविषयवितृष्णस्य वशीकारसंज्ञा वैराग्यम् । (योग० १.१५ )

१५. तत्परं पुरुषख्यातेर्गुणवैतृष्ण्यम् । (योग० १।१६)

१६. यतमान – विषयोंमें दोष-चिन्तन रूप प्रयत्नसे इन्द्रियोंको उनके विषयोंसे रोकना ।

व्यतिरेक- चित्तमें यतमानके परिपाकसे यह बोघ रहना कि इतना मल निवृत्त हो चुका, इतना कर रहा हूँ और इतना निवृत्त और करना है।

एकेन्द्रिय – इन्द्रियोंका बाह्य विषयोंमें प्रवृत्त न होना परन्तु विषयोंमें सूक्ष्म रागका बने रहना ।

वशीकार- दिव्य-अदिव्य सभी विषयों में स्थूल प्रवृत्ति और सूक्ष्म रागका न रहना ।
श्रीशंकराचार्य भगवान् कहते हैं :

इहामुत्रफल भोगविरागस्तदनन्तरम् (वि० चू० १९)

तद्वैराग्यं जुगुप्सा या दर्शनश्रवणादिभिः ।

देहादि ब्रह्मपर्यन्ते ह्यनित्ये भोगवस्तुनि । (वि० चू० २१-२२)

‘इस लोक और परलोकके कर्मजन्य फल अर्थात् सुखके भोगमें वैराग्य (विवेकके अनन्तर दूसरा साधन है)। दर्शन और श्रवणादिके द्वारा देहसे लेकर ब्रह्मलोक पर्यन्त सम्पूर्ण अनित्य निश्चय किये हुए भोग पदार्थोंमें जो दोप-बुद्धि है, वही वैराग्य है।’

इस दुनियाका व्यवहार देखते हो, सुनते हो, यहाँ क्या-क्या नहीं होता ? पति-पत्नी में लड़ाई होती है। लोभसे अपनी कन्याको बेच डालते हैं। पर्देके पीछे क्या हो रहा है, उसको समझो। इससे जुगुप्सा अर्थात् घृणा या दोष-वृद्धि उत्पन्न होगी। वही वैराग्य है। दुनियाके व्यवहारमें कितना कपट है, यह देखकर सुनकर, समझकर वैराग्यको प्राप्त हो जाओ ! यहाँ सब चीजें बदल रही हैं- प्रेम, श्रद्धा, संग सब कुछ। देह बचपनसे जवान हुआ, जवानसे बुड्ढा हो गया ! परन्तु तृष्णा बुड्ढी नहीं हुई। यहाँ क्या भोगने योग्य है? कुछ नहीं। भोगके साथ राग और रागके साथ कौशल बढ़ता है। दूसरेको सताये बिना भोग होता ही नहीं । १८

(ग) षट्-सम्पत्ति

वैराग्य-चक्रके छः अरे हैं। अर्थात् जब ये छः अरे दृढ़तासे घूमते हैं तब वैराग्य-चक्र आगे बढ़ता है। दूसरे शब्दों में वैराग्यके परिष्णकके रूपमें छः सम्पदाएँ मुमुक्षुको प्राप्त होती हैं। इन्हींको षट्-सम्पत्ति कहते हैं, जो साधन-चतुष्टयमें तीसरी चीज हैं। ये षट्-सम्पत्ति हैं-

शान्तो दान्त उपरतस्तितिक्षुः समाहितो भूत्वा आत्मन्येव आत्मानं पश्येत् ।

( वृहदा० ४.४.२३ )

अर्थात् ‘शान्ति, दम, उपरति, तितिक्षा, श्रद्धा और समाधानकी सम्पत्तिसे युक्त होकर मुमुक्षु अपनी आत्मामें आत्माको देखे ।’

१७. भोगाभ्यासमनु विवर्धन्ते रागाः कौशलानि चेन्द्रियाणाम् (योग० २.१५) १८. नानुपहत्य भूतानि उपभोगः सम्भवति (योगभाष्य २.१५ )

१. शम ( शान्ति ):- बारम्बार दोष-दृष्टि करनेसे विषय-समूहसे विरक्त होकर चित्तका अपने लक्ष्यमें स्थिर हो जाना शम अथवा शान्ति है। दूसरे शब्दोंमें काम-क्रोधादि विकारोंके विषय तथा तज्जन्य सुखसे वैराग्यका नाम शम है। गृहस्थ मुमुक्षुओंके लिए विहित काम-क्रोध भी त्याज्य हैं। वैराग्यको सम्पुष्टिके बिना शम सम्भव नहीं। शम मानसिक स्वास्थ्य है। यह विकारका प्रतिद्वन्द्वी है।

२. दम (दान्ति): – ज्ञानेन्द्रियों और कर्मेन्द्रियोंको उनके विषयोंसे लौटाकर अपने-अपने गोलकोंमें स्थिर करना दम कहलाता है। इन्द्रियोंको वशमें रखनेकी शक्तिका नाम दम है। इन्द्रियोंका निषिद्ध विषयोंसे निग्रह तो धर्ममें ही हो जाता है। ब्रह्म-जिजासुको तो विहित विषयोंसे भी निग्रह करना चाहिए । नेत्रके सम्मुख आकर्षक रूप प्रस्तुत होनेपर और उसको देखनेकी अनुमति होनेपर भी मनका नेत्रद्वारसे बाहर न निकलना दमकी पराकाष्ठा है और मनके बाहर निकलनेकी इच्छाको रोकनेका नाम दमका अभ्यास है। स्पष्ट है कि दम शमका अनुगामी है और शम है दमकी चरम परिणति । अतः दम भी वैराग्यका परिपाक है। इन्द्रियोंसे वैराग्यका नाम दम है।

३ उपरति :- कर्माधिक्यसे वैराग्यका नाम उपरति है। ऐसा नहीं कि हम दुनियादारीके कर्म तो न करें, किन्तु लोकोपकार आदि शुभकर्मोंमें व्यस्त रहे। यहाँ तक कि यज्ञ-यागादि कर्म भी उपरतिमें बाधक हैं। जिस मुमुक्षुमें शम, दम होंगे उसमें उपरति तो अवश्य ही होगी। शम-दमका फल उपरति है। श्रीमद्भागवतमें ग्यारहवें स्कन्धमें हंसावतारकी कथामें बताया गया है कि ब्रह्मा जैसे ईश्वर-क्रोटिके देवता भी कर्ममें व्यस्त रहनेके कारण सनकादिके अध्यात्म-सबन्धी प्रश्नोंका उत्तर न दे सके नाभ्यपद्यत कर्मधीः (११.१३.१८)। फिर साधारण जीवोंकी तो बात ही क्या है !

कर्म करनेकी आदत पड़ जाती है, भोगको आदत पड़ जाती है, पढ़ने-सोचनेकी आदत पड़ जाती है। पहले उत्सुकतावश प्रारम्भ करते हैं, फिर मजेकी खातिर करते हैं और बाद में किये बगैर रह नहीं पाते। नाम, रूप, वस्तु, व्यक्ति, परिस्थिति और कर्मके सहारेके बिना रह नहीं पाते। इस प्रकार बाह्य आलम्बनको स्वीकार करनेकी जो आदत है वह वृत्तिकी शान्तिमें बाधक है। जिसके अन्तःकरणमें शम-राम हैं उसको तो वृत्ति ही भार मालूम पड़ती है, फिर बाह्यालम्बनरूप वृत्ति तो भार मालूम पड़ेगी ही। अतः वैराग्यजन्य उत्तम उपरति यही है कि वृत्ति बाह्य विषयोंका आलम्बन न ले ।१९ इसमें कर्म, भोग, आकार सबसे हो वैराग्य है ।

४. तितिक्षा :- द्वन्द्वाघातको सहर्ष सह लेनेको जो वृत्ति है उसे तितिक्षा कहते हैं। भूख-प्यास, सर्दी-गर्मी, सुख-दुःख, मान-अपभान आदि द्वन्दोंको सहनेका स्वभाव तितिक्षा कहलाता है। दुःखको सह लेना और बात है और उसे तप समझकर सहना दूसरी बात है। अतः तितिक्षामें तपोबुद्धि होनी चाहिए। छान्दोग्य उपनिषद्‌में तितिक्षाको स्वयं एक बड़ा तप कहा है: एतद्वै परमं तपः । तितिक्षामें मूलतः शरीरके प्रति वैराग्य है।
‘तितिक्षा’ शब्दका अर्थ है अपनी शक्तिको उत्तेजित करना। अपनी सोयी हुई शक्तिको उत्तेजित करनेकी प्रक्रिया है, सहन करना। बोलनेका शक्ति उत्तेजित करती है तो मौन रहनेका प्रयत्न कीजिये । तर्क-वितर्क करनेवालोंसे उलझिये मत, चुप हो जाइये । आपके भीतरसे उनके तर्कोंको काटनेकी शक्ति उदय हो जायेगी। एक दिन आपको कोई भोजन न दे तो खाइये मत, माँगिये मत। दूसरे दिन आपके सामने थाल अपने आप आवेगा। खानेकी शक्ति भी बढ़ेगी। जो आता है उसे आने दो । छोटी-छोटी वातोंमे लड़नेमें अपनी शक्तिको व्यर्थ व्यय मत करो, उनको बिना ननुनच किये सहन कर लो। तुम्हारी चित्तवृत्ति तो परमानन्द ब्रह्ममें बैठनेके लिए है, अपनी तकलीफोंका रोना रोनेके लिए नहीं है।

५. श्रद्धा :- अभिमानसे वैराग्यका नाम श्रद्धा है। मनुष्यको अपने उच्चकुल, धन, विद्या, तप आदिका अभिमान होता है। जब हम किसी पर श्रद्धा करते हैं तो यह अभिमान टूटता है। वेद, शास्त्र और गुरुकी बातको सत्य मानना श्रद्धा है। अभिमानी ज्ञानके ग्रहण में पटु नहीं होता। अभिमानी कठोर होता है जिससे पहिले तो वह दूसरेकी सुनता ही नहीं और सुनतां भी है तो उसके कठोर चित्त पर वह कोई संस्कार नहीं छोड़ता। चित्तकी कठोरता ज्ञान-संस्कारको उचका देती है। मुमुक्षुको यह अभिमान नहीं

१९. बाह्यानालम्बनं वृत्तेरेषोपरतिरुत्तमा । (वि० चू० २४) २०. सहनं सर्वदुःखानामप्रतीकारपूर्वकम् । चिन्ताविलापरहितं सा तितिक्षा निगद्यते ।।

( वि० चू० २५)

करना चाहिए कि हम सब जानते हैं अथवा हम किसीसे क्यों पूछें अथवा हम तो अपने बराबरवालोंसे ही पूछेंगे ।

अनमिला साजन है, अनदेखा मार्ग है, उसमें श्रद्धाके अतिरिक्त और कोई उपाय नहीं है।

जो सत् है उसीको ‘श्रत्’ कहते हैं। ‘श्रत्’ में रेफका प्रयोग सत्को छुपानेके लिए है। सत्को धारण करनेवाली बुद्धिका नाम श्रत् + धा-श्रद्धा है। श्रद्धासे हो सत् वस्तुको उपलब्धि होती है।

६. समाधान :- शम, दम, उपरति, तितिक्षा और श्रद्धा ये पाँचों किसी जिज्ञासुमें रहने पर भी यह आवश्यक नहीं कि उसे मनोराज्य न होता हो । अपने व्यक्तित्व के उभारसे सम्बद्ध अनेक सिद्धियों-चमत्कारोंके आकर्षण उसके मनको साधन-साध्य सम्बन्धी विकल्पोंका अखाड़ा बना देते हैं। ऐसा वित्त असमाहित है। इसके विपरीत चित्तमें नाना प्रकारके विकल्पोंकी शान्ति और बुद्धिको सब प्रकारसे शुद्ध ब्रह्म में स्थिर रखनेका नाम समाधान है। इसे वेदान्तकी ‘समाधि’ भी कह सकते हैं। समाधान चित्तकी शान्ति है।

असलमें ये छहों सावन एक ही साधनके छः रूप हैं और उस ‘एक’ का नाम है वैराग्यजनित शान्ति । जैसे एक ही चेतन नेत्रगोलकमें रहनेसे नेत्रेन्द्रिय, श्रवण-गोलकमें रहनेसे श्रवणेन्द्रिय और अन्य गोलकों में रहनेसे तत्तत् नामोंसे प्रसिद्ध होता है, वैसे एक हो शान्ति मनमें रहनेसे शम, इन्द्रियोंमें रहनेसे दम, कर्ममें रहनेसे उपरति, शरीरमें रहनेसे तितिक्षा, हृदय (भाव) में रहनेसे श्रद्धा और चित्त में रहनेसे समाधान कहलाती है।

स्मरण रहे कि यह शान्ति साधन सामग्रीके अन्तर्गत है। अतः यह ब्रह्मकी स्वरूपभूता शान्तिसे भिन्न है । ब्रह्मकी स्वरूपभूता शान्ति अद्वितीयताको संलग्नक होनेसे किसीकी विरोधी नहीं है; उसमें निवर्त्य-निवर्तक भाव नहीं होता। इसके विपरीत प्रस्तुत शान्ति शम होनेसे काम, क्रोधादि विकारोंकी, दम होनेसे इन्द्रियोंके विक्षेपको, उपरति होनेसे कर्मविक्षेपकी, तितिक्षा होनेसे शारीरिक प्रतिक्रियाओंकी, श्रद्धा होनेसे अभिमानकी और समाधान होनेसे चित्तकी सहज चंचलतारूप मनोराज्यकी

२१. सर्वदा स्थापनं बुद्धेः शुद्धे ब्रह्मणि सर्वथा ।
तत्समाधानमित्युक्तं न तु चित्तस्य लालनम् ॥ (वि० चू० २७)

निवर्तक है। सच तो यह है कि ब्रह्म-विचारकी आवश्यक पृष्ठभूमि सहज शान्ति हो है। श्रुति कहती है :

नाविरतो दुश्चरितान्नाशान्तो नासमाहितः ।
नाशान्तमानसो वापि प्रज्ञानेनैनमाप्नुयात् ॥ (कठ० १.२.२४)

‘जो पापकर्मोंसे विरत नहीं हुआ, जो इन्द्रियोंकी चंचलता के कारण अशान्त है, जो समाहित नहीं है और जिसका मन शान्त नहीं है वह केवल प्रज्ञाके बलपर इस आत्माको प्राप्त नहीं कर मकता ।’

नाविरतो दुश्चरितात् – दुश्चरित्र माने श्रुतिस्मृतिसे निषिद्ध कर्मोंका आचरण अर्थात् पापाचरण। लोक और शास्त्रकी मर्यादाको आदमी केवल वासनाकी अधिकताके कारण ही तोड़ता है।

ऐसा व्यक्ति यदि ब्रह्म-विचार करेगा तो क्या आश्वासन है कि यह वासनाके आवेशमें अब्रह्मको ब्रह्म नहीं मान बैठेगा ? अतः ब्रह्मविचारका कर्म अधर्म नहीं होना चाहिए। दुश्वरित मलका ही दूसरा नाम है। मल अर्थात् पापकर्म, पापबुद्धि और पाप-वासना । सत्यके जिज्ञासुको मलका त्याग करना चाहिए ।

नाशान्तः – इन्द्रियोंकी चंचलतासे उत्पन्न अशान्ति जिसमें है वह ब्रह्मज्ञानका अधिकारी नहीं है। ‘नाशान्तः’ अर्थात् दम रहित । ऐसा व्यक्ति न तो कर्माधिक्यसे विरत हो सकता है और न विरत होने पर शान्त-चित्त रह सकता है। इसमें पापबुद्धिके अतिरिक्त असंयम और रागद्वेषकी प्रबलता हेतु हैं। अशान्त चित्तमें त्यागका सामर्थ्य नहीं होता। काम आया तो फिसल गये, क्रोध आया तो गाली देने लगे; व्यक्ति या सिद्धान्तसे द्वेष हुआ तो सत्य हो छोड़ बैठे !

नासमाहितः – जिसमें समाधान’ नहीं है वह एक दिशामें बँधकर विचार नहीं कर सकता। राग-द्वेषसे उत्पन्न जो चित्तका विक्षेप है उसकी निवृत्तिका नाम समाधान है।

नाशान्तमानसः । जिसका मन शान्त नहीं है अर्थात् जिसमें शम नहीं है वह ब्रह्मविचार नहीं कर सकता। समाधान होनेपर भी आपका मन अशान्त हो सकता है क्योंकि आपको समाधानसे उत्पन्न सिद्धियों और चमत्कारोंका ब्रह्मात्मैक्य-बोधकी अपेक्षा अधिक ख्याल हो सकता है ! सिद्धियोंका प्रलोभन जिज्ञासुको लक्ष्यसे भटका देता है।
जिनमें उपर्युक्त चार दोष हैं वे सही ब्रह्म-विचार नहीं कर सकते। षट्-सम्पत्तिके अर्जनसे ये चारों दोष निवृत्त हो जाते हैं। षट्-सम्पत्ति के बिना केवल प्रज्ञाके बलपर तर्क-वितर्कसे ब्रह्म प्राप्त नहीं हो सकता । तर्कका कोई लक्ष्य नहीं होता और उसमें कोई स्थिरता नहीं होती । तर्क तो दायें बाजू, बायें बाजू दोनों ओर हो सकता है और आजका तर्क अभी नहीं तो कल, अधिक विद्वान् व्यक्तिके द्वारा काटा जा सकता है। इसीलिए श्रुति (कठ० १.२.९) और ब्रह्मसूत्र (२.१.११ दोनों में तर्ककी अप्रतिष्ठा बतायी गयी है। वेदान्तमें तर्कके स्थान पर मीमांसा अथवा पूजित विचार अपेक्षित है।

(घ) मुमुक्षा

साधन-सतुष्टयकी अन्तिम सामग्री है ‘मुमुक्षा’ अर्थात् मोक्षकी इच्छा । इसका वर्णन पहिले ही हो चुका है।

अहंकारसे लेकर देहपर्यन्त जितने अज्ञानसे कल्पित बन्धन हैं उनको अपने स्क्रूपके ज्ञानसे जो काटनेकी, छोड़नेकी, त्यागनेकी इच्छा है उसका नाम मुमुक्षा है। २ मोक्तुम् इच्छा मुमुक्षता । परिच्छिन्न अहंभावमें जा ‘मैं’ का तादात्म्य है वहाँसे लेकर देहमें और देहके सम्बन्धियोंको लेकर जा तादात्म्यापन्न ‘मैं’ है उससे छुटकारेकी जो इच्छा है-न मैं किसीका, न कोई मेरा, इस इच्छाका नाम मोक्षेच्छा है।

जबतक ‘अन्तःकरणयाला मैं’ और ‘अन्तःकरण मेरा’ है तबतक ज्ञानका द्वारे खुलेगा नहीं। तादात्म्य बुद्धिमें होता है, इसलिए मोक्षसिद्धिका उपाय एकमात्र स्वरूपका सच्चा ज्ञान ही हो सकता है। जो कुछ करके मोक्ष पाना चाहता है उसकी मुमुक्षा मन्द है। जो देवता और उपासना के सहारे, जप, तप, होमके सहारे मोक्ष पाना चाहता है, उसकी मुमुक्षा मध्यम है। जो अपने स्वरूपके बोधसे और बोधमात्रसे ही मोक्ष पाना चाहता है, उसकी मुमुक्षा उत्तम है। उत्तम मुमुक्षाका उदय गुरु-कृपासे ही उदय होता है।

२२. अहंकारादिदेहान्तान्-बन्धान् अज्ञानकल्पितान् ।

स्वस्वरूपावबोधेन मोक्तुमिच्छामुमुक्षता ।। (वि० चू० २८)

स्वामी रामतीर्थने एक दृष्टान्त दिया है। एक साधु गये हिमालयमें । एक गुफ़ाके बाहर बहुत सारे लोग इकट्ठा थे। वहाँ कोई माला लेकर जप कर रहा था, कोई हाथ जोड़कर प्रार्थना कर रहा था, कोई होम कर रहा था तो कोई ध्यान कर रहा था। पूछनेपर एकने बताया कि इस गुफा में भूत, प्रेत, पिशाच रहते हैं। इसमें जो जाता है उसीको वह पकड़ लेते हैं। भीतर अन्धेरा है। इसलिए, हम अन्धकारको निवृत्तिके लिए प्रार्थना कर रहे हैं कि ‘हे अन्धकार देवता ! तुम दूर हो जाओ’। दूसरा बोला-‘मैं इसके लिए होम कर रहा हूँ: ‘अन्धकारं भस्मी कुरु स्वाहा’ । तीसरा बोला-हम ध्यान कर रहे हैं कि प्रकाश ही प्रकाश है, अंधकार है ही नहीं। यह सुनकर महात्मा हँस पड़े। बोले- देखो भाई, यह अन्धकार हाथ जोड़नेसे, होम करनेसे या ध्यान या कल्पना करनेसे नहीं जायेगा। इसके लिए आग जलाओ और मशालें लेकर मेरे साथ भीतर घुसो। अन्धकार भाग जायेगा । रास्तेमें जो अजगर, शेर, साँन आदि मिलें उनको मारते हुए चले तो देखा कि न वहाँ भूत था, न पिशाच । मात्र सब अन्धकारकी माया थी।

जैसे अन्धकार केवल प्रकाशसे दूर होता है वैसे ही अज्ञान और उससे उत्पन्न जितने बन्धन हैं वे सब ज्ञानसे दूर हो जाते हैं। अन्य किसी साधनकी आवश्यकता नहीं है।

३. अधिकारको सरलता

विवेक, वैराग्य, षट् सम्पत्ति और मुमुक्षासे सम्पन्न जिज्ञासु ही ब्रह्मज्ञानका मुख्य अधिकारी है। कुल मिलाकर ये नौ साधन बनते हैं, परन्तु षट्सम्पत्ति तो वैराग्यका ही परिपाक है। अतः विवेक, वैराग्य और मुमुक्षा ये तीन ही साधन बनते हैं। इनमें भो वैराग्य और मुमुक्षा, दो ही प्रधान हैं। साधकोंमें जो ऊँचे-नीचेका तारतम्य देखा जाता है वह वैराग्य और मुमुक्षाकी तीव्रता-मन्दताके आधारपर ही होता है।

जिनमें साधन-चतुष्टय हैं उनको तो ब्रह्मज्ञानकी प्राप्ति होगी ही। परन्तु जिनमें यह बिल्कुल न हों या बहुत कम मात्रामें हों किन्तु उत्सुकतावश उनकी ब्रह्म-विचारमें प्रवृत्ति हो गयी हो उनको भी निराश होनेकी आवश्यकता नहीं है। वेदान्तके श्रवण आदिसे तथा ब्रह्मज्ञानियोंके श्रद्धापूर्ण सङ्गसे उनमें काल पाकर वैराग्य और मुमुक्षा जाग्रत हो जायेगी ।
यह कहना सही नहीं है कि केवल साधन-सम्पन्न व्यक्ति ही ब्रह्म-विचारका अधिकारी है। गोताके अनुसार तो पापी-से-पापी भो ज्ञान-नौकापर बैठकर भवसागरसे पार हो सकता है।” फिर पुण्यवान्, श्रद्धालुओंकी तो बात ही क्या है ! अतः वेदान्त-विचारमें प्रत्येक मनुष्यका अधिकार है। भला, वेदान्त-विचारसे सिद्ध होनेवाले परमानन्दकी प्राप्ति और अनर्थकी निवृत्ति किसको इष्ट नहीं होगी ?

किसी शास्त्रमें यह नहीं लिखा कि ब्रह्म-विचारसे कितने काल पूर्व साधन-सामग्री विचारकमें होनी चाहिए। वेदान्त-विचारसे अव्यवहित पूर्व कालमें यदि यह सामग्री उपस्थित हो जाय तो अज्ञानकी निवृत्ति हो सकती है। आप घर-वार छोड़कर घण्टे भरके लिए गुरुके पास वेदान्त-श्रवणके लिए जाते हैं तो मनमें कुछ विवेक, वैराग्य है, तब न जाते हो ! वहाँ न कोई इन्द्रिय-भोग होता है, न कामधन्धा, चुपचाप बैठकर सुनते हो । अतः शम, दम, उपरति तो आपके पास हो गयी। कड़े फर्शपर बैठते हो, गर्मी-सर्दी सहते हो, अतः तितिक्षा हो गयी। अभिमान छोड़कर नीचे बैठकर सुनते हो, तो श्रद्धा भी है ओर सत्संगमें मनोराज्य भी नहीं होता, इसलिए समाधान भी है। वेदान्त सुनकर मोक्षेच्छा आपमें जगती है, इसलिए मुमुक्षा भी हो गयी । तो गुरु-गृहमें वेदान्त श्रवण करनेमें तो आपमें साधन-चतुष्टय हो ही जाता है। यदि नियमसे प्रतिदिन सत्संग किया जाय तो यह साधन स्थायी भी हो सकता है। फिर क्या आश्चर्य है यदि किसीको सत्संगमें सुनते-सुनते ही तत्त्वज्ञान हो जाय !

४. मोक्षसाधिका भक्ति

इस प्रसंगमें एक अन्तिम बात और । प्रत्येक इन्द्रिय अपने-अपने विषयमें असाधारण करण है। उदाहरणार्थ, रूप नेत्रसे ही देखा जा सकता है और शब्द कानसे ही सुना जा सकता है; रूप कानसे और शब्द नेत्रसे अनुभव नहीं किया जा सकता। परन्तु इन पाँचों इन्द्रियोंमें एक साधारण करण भी है जिसका नाम मन है, जिसके बिना कोई इन्द्रिय अपने विषयका ज्ञान नहीं कर सकती । लोक़में कहते ही हैं मेरा मन दूसरी जगह चला

२३. अपि चेदसि पापेभ्यः सर्वेभ्यः पापकृत्तमः ।
सर्वं ज्ञानप्लवेनैव वृजिनं संतरिष्यसि ।। (गीता ४.३६)

गया था, मैंने सुना नहीं। मेरा मन दूसरी जगह था, मैंने देखा नहीं, इत्यादि । २४ तो जैसे मनके बिना कोई इन्द्रिय अपना विषय ग्रहण नहीं करती, उसी प्रकार असाधारण साधन-चतुष्टयके संदर्भमें वह ‘साधारण’ साधन क्या है जिसके होनेपर ही सब साधन सफल होते हैं और जिसके न होनेपर नहीं होते ? उस साधारण साधन-करणका नाम है- भक्ति । २५

भक्ति माने प्रेमयुक्त दृढ़ निष्ठा कि ‘मैं तो मोक्ष प्राप्त करके ही रहूँगा।’ जिमके मनमें मोक्ष-प्राप्तिकी दृढ़ रुचि अर्थात् प्रीति नहीं है उसे मोक्षकी प्राप्ति नहीं हो सकती। पहले रुचि, फिर श्रद्धा, फिर प्रीति, तदनन्तर प्रवृत्ति । यह ठीक है कि मोक्ष बनाना नहीं है, विद्यमान वस्तुको जानना है। परन्तु जाननेकी रुचिके साथ उसकी अनुभूतिकी ओर भी अग्रसर होना चाहिए ।

एष ते रुद्र भाग : (यजु० ३.५७) । ‘हे रुद्र, यह तुम्हारा भाग है। तो भागो भक्तिः – भाग माने बँटवारा कर देना । यजुर्वेदमें आता है : एक ओर है संसार और दूसरी ओर है मोक्ष। जो बोल देते हैं- ‘हे मोक्ष, मैं तेरा भाग हूँ, मुझे संसार नहीं चाहिए’ उनमें मोक्षकी भक्ति है। ‘हे ईश्वर ! अब हम भाईके, जातिके मजहबके भाग नहीं हैं, हम आपके हैं।’ माने ‘अब हम मोक्षके फण्डमें गये, संसार-बन्धनके फण्ड में नहीं हैं इस निश्चयका नाम भक्ति है।

मोक्ष-वासना-युक्त विवेकका नाम भक्ति है। अथवा मोक्षपक्षपाती विवेकका नाम भक्ति है। भक्ति भजनोयके स्वरूपको अपने हृदयमें ले आती है और उसके अतिरिक्तसे वैराग्य करा देती है। परन्तु यह स्मरणीय है कि वह आत्मा और ब्रह्मकी एकताका ज्ञान प्रदान नहीं करती । अन्तःकरणका परिवर्तन कर देना भक्तिका काम है और तत्त्वके अज्ञानको मिटा देना ज्ञानका काम है। दोनोंका विभाग अलग-अलग है। भति व्यक्तिका विवेक है, और इसी प्रकार धर्म और योग भी तीनों परिच्छिन्न अहंके आश्रित रहते हैं। यह तत्त्वविवेक नहीं है। वृत्तिकी स्थिरता निष्ठा है, इसलिए भक्ति दृढ़ निष्ठामें हेतु है। परन्तु तत्त्वज्ञान

२८. अन्यत्रमना अभूवं नादर्शमन्यत्रमना अभूवं नाश्रौषमिति मनसा ह्येव पश्यति मनसा शृणोति ।
( वृहदा० १.५.३)

२५. मोक्षका रणसामग्रयां भक्तिरेव गरीयसी ।
स्वस्वरूपानुसन्धानं भक्तिरित्यभिधीयते ।। (वि० चू० ३२)

अज्ञानको मिटानेके लिए है। यदि कोई बिना भक्तिके मुक्त हो जाय तो जिन्दगी भर उसको शिकायत बनी रहेगी कि वृत्ति टिकती नहीं । अतः ‘भक्ति’ साधन सामग्रीमें महत्त्वपूर्ण है।

नारदजीने भक्तिका लक्षण किया– अपना सम्पूर्ण जीवन-व्यवहार अपने भजनीयके प्रति सर्पित कर देना भक्ति है; तथा ‘उसके विस्मरण में परम व्याकुल होना’ २७ कि ‘हाय-हाय ! हम उसे भूल गये, हमारा जीवन बेकार गया’- यही भक्ति है। श्रीशंकराचार्य भगवान् कहते हैं कि ‘स्वस्वरूपानुमन्धानका नाम भक्ति है’। दोनों परिभाषाओंको मिलाकर कहें तो ‘अपने आपको संसार-फण्डसे निकालकर मोक्षफण्डके प्रति सर्मापत जीवन तथा गुरु-उपसत्तिपूर्वक आत्मा और ब्रह्मकी एकताका अनुसन्धान और इसके व्यवधान में व्याकुलता’ यही भक्ति है। अनुसन्धान माने लक्ष्यकी ओर निशाना लगाकर तीरकी तरह चलना ।

साधन-चतुष्टयसे सम्पन्न होकर अधिकारी मुमुक्षुको चाहिए कि वह ब्रह्मनिष्ठ सद्‌गुरुकी शरण में जाय और अपनी मुमुक्षाकी पूर्तिका उपाय करे ।

५. साधन-विचार

प्रश्न यह है कि आत्माको ब्रह्म जाननेका साधन क्या है ? उसके लिए हम क्या करें ? क्या छोड़ें और क्या ग्रहण करें ? कौन-सी ध्यान-धारणा करें ? समाधि कैसे लगे ? ब्रह्मज्ञानके लिए उक्त समाधि आदि साधनोंको आवश्यकता है भी या नहीं ?

एक पक्ष कहता है- “बिना कुछ किये कोई अवस्था, स्थिति, ज्ञान प्राप्त नहीं हो सकता । केवल ब्रह्मात्मैक्य-बोधकी चर्चा अथवा विचार करनेसे ब्रह्मज्ञान नहीं हो सकता।” दूसरा पक्ष कहता है- “कर्मसे जो भी अवस्था, स्थिति, ज्ञान प्राप्त होगा वह विनाशी होगा। यदि किसी साधनाके परिणाम-स्वरूप ब्रह्मज्ञानकी प्राप्ति हो तौ तद्रूप मोक्ष भी अनित्य होगा । अनित्य मोक्ष निश्चय ही वेदान्तका प्रयोजन नहीं है। अतः ब्रह्मज्ञानके लिए किसी अन्य साधनकी आवश्यकता नहीं है, स्वयं ज्ञान ही साधन है।”

२६. तर्पिताखिलाचारः (नारद० ४.६५)
२७. तद्विस्मणे परमव्याकुलतेति (नारद० १.१९)

तब इसमें निर्णय क्या है ?

यह ठीक है कि मोक्ष आत्माका स्वरूप है तथा आत्मा और ब्रह्मकी एकताका ज्ञान साधन-साध्य नहीं है। किन्तु हम यह पूछते हैं कि ‘आत्मा साधन-साध्य नहीं है’- यह ज्ञान आपमें उदित हुआ कैसे ? इसके उदयके लिए अन्तःकरणकी पूर्व तैयारी तो आवश्यक ही है। पहले आप यह समझें कि साधनसे क्या मिलता है और ज्ञानसे क्या मिलता है ?

साधन साध्यके लिए होता है। साध्यका प्रागभाव (उत्पत्तिसे पहले अभाव) और प्रध्वंसाभाव (नष्ट होनेके बाद अभाव) भी होता है क्योंकि स्वयं साधनका वही स्वभाव है। किन्तु जो वस्तु नित्य-सिद्ध होती है उसकी प्राप्ति केवल ज्ञानसे ही होती है। साधनसे अनित्य साध्य मिलता है तो ज्ञानसे नित्य-सिद्ध वस्तु मिलती है, यही साधन और ज्ञानका भेद है। जो वस्तु पहिलेसे विद्यमान रहती है वह केवल अज्ञानसे ही अप्राप्त रहती है; अज्ञता ही उसकी अप्राप्ति है। उस वस्तुका ज्ञान उसमें सिर्फ ज्ञातता उत्पन्न करके उसे ज्ञाताको प्राप्त करा देता है। ज्ञान केवल अज्ञानको दूर करता है, वस्तुमें कोई नवीनता उत्पन्न नहीं करता ।

वस्तुके बोधमें ज्ञान प्रमाणातिरिक्त किसी अन्य साधनकी अपेक्षा नहीं रखता । जैसे रूप-ज्ञानके लिए केवल उत्तम नेत्र चाहिए; वैसे ही प्रमेय-वस्तु (ब्रह्म) के साक्षात्कारके लिए केवल शुद्ध प्रमाण (तत्त्वमसि आदि महावाक्य-जन्य वृत्ति) चाहिए; कर्म, उपासना, योग, समाधि कुछ नहीं चाहिए । किन्तु जैसे नेत्र में रोग होनेपर उसे औषधसे शुद्ध कर लिया जाता है-औषध केवल रोग-निवृत्तिमें हेतु है, आँखकी देखनेकी शक्ति उत्पन्न करनेमें नहीं, ठीक वैसे ही जिस अन्तःकरणमें प्रमाणवृत्ति उदित होती है उसमें बाह्यकर्मों और आन्तर वासनाओं द्वारा उत्पन्न केवल मल-विक्षेपरूप रोगकी निवृत्तिके लिए साधनकी आवश्यकता होती है।२८

ब्रह्म-जिज्ञासुको भली-भाँति समझ लेना चाहिए कि शास्त्रोक्त सभी साधनोंका प्रयोजन मोक्ष-सम्पादिका प्रमाण-वृत्तिके आश्रय अन्तः करणके रोगकी निवृत्ति में है, सीधे ब्रह्मज्ञानकी उत्पत्ति में नहीं। अतः साधनोंको केवल औषधवत् स्वीकार करना इष्ट है, स्वास्थ्यवत् नहीं। रोगनिवृत्तिके

२८. रोगार्तस्येव रोगनिवृत्तौ स्वस्थता (माण्डूक्य० शांकर भाष्य) ।

पश्चात् साधन त्याज्य हो जाते हैं। साधनसे पूर्व और साधनके पश्चात् जो आप हैं, वे तो ज्यों-के-त्यों विद्यमान हैं। केवल आपके वास्तविक स्वरूपकी अज्ञता ही नष्ट होकर ज्ञातता उबित हुई है।

अद्वैत तत्त्व कभी साधन-साध्य नहीं, सिद्ध है, नित्य प्राप्त है। नित्य प्राप्तमें अप्राप्तिका भ्रम मिटानेके लिए ही ज्ञानकी आवश्यकता है। यदि आपको भय हो कि आप ज्ञानारण्यमें भटक जायेंगे, तो प्रतिबन्धोंकी निवृत्तिके लिए उपाय कर लीजिये। साधन ब्रह्मको दिखानेके लिए नहीं केवल प्रमाणको सुधारनेके लिए होता है।

वेदान्त अप्राप्तका प्रापक नहीं है। वह बताता है ‘तुम पूर्ण ब्रह्म हो । यही ज्ञान सब कमजोरियोंको मिटा देता है। स्वास्थ्य आपका स्वभाव है। किन्हीं कारणोंसे आपको पागलपन हो गया है कि ‘आप देह हैं, देही हैं’, कटने-पिटनेवाले (परिच्छिन्न) हैं, रोगी हैं’। आप उन कारणोंको हटा दीजिये । बस ! और कुछ अपेक्षित नहीं है। आपके पास जो होरा है उसे पहिचान भर लीजिये । उसके पहिचाननेमें जो प्रतिबन्ध हैं उन्हें साधनसे हटा दीजिये ।

यों तो साधनकी बातें पुस्तकों और पण्डितोंसे बहुत से लोग जान जाते हैं किन्तु उसकी गहराइयाँ तो वे अनुभवी महापुरुष ही जानते है जिन्होंने अपना जीवन साधनोंके प्रति सर्पित कर दिया है। अतः साधनका निर्णय किसी अनुभवी महापुरुषसे ही कराना चाहिए ।

वेदान्तमें ब्रह्मज्ञानके अतिरिक्त साधनोंकी चार कक्षाएँ स्वीकार की गयी हैं। हमारे कर्मोंका प्रभाव हमारे अन्तःकरणपर पड़ता है। अतः कुछ साधन कर्मकी शुद्धिके लिए हैं। उनको कर्म-शोधक साधन कहते हैं। कुछ साधन पूर्वकृत कर्मोंसे उत्पन्न अन्तःकरणमें पड़े हुए राग-द्वेषकी निवृत्ति के लिए होते हैं। इसलिए इन साधनोंको करण-शोधक साधन कहते हैं। वासनाकी न्यूनता अथवा शुद्धि होनेपर भी बुद्धिमें जो अपने, जगत्‌के और ब्रह्म के बारेमें अज्ञान, संशय और विपरीत ज्ञान भरा है, उसके शोधन हेतु जो साधन हैं वे पदार्थ-शोधक साधन कहलाते हैं। अन्तमें पद-पदार्थका यथार्थ बोध होनेपर भी जबतक अपनी पूर्णताके बोधक ‘तत्त्वमसि’ आदि

२९. रोगार्तस्येव रोगनिवृत्तौ स्वस्थता (माण्डूक्य० शांकर भाष्य) ।

महावाक्यजन्य अखण्डार्थ-धीका उदय नहीं होता तबतक ब्रह्मात्मैक्य-बोध नहीं होता । अतः इस ब्रह्मात्मैक्य-बोधिनी वृत्तिको वेदान्तमें साक्षात् साधन कहा गया है।

इसे आप बन्दूकके दृष्टान्तसे समझ सकते हैं। नियम यह है कि ठीक निशाना लगानेके लिए चार बातें आवश्यक हैं: (१) बन्दूककी नली साफ हो; (२) बन्दूकमें गोली भरी हो; (३ आँख, नली और लक्ष्य तीनों एक सीधमें कर लिये गये हों तथा अंगुली अंगूठा बन्दूक के घोड़ेपर हो; और (४) अन्तमें घोड़ा दबा दिया जाय। यहाँ बन्दुककी नली साफ करना कर्म-शोधक साधन है, गोली भरना करण-शोधक साधन है, लक्ष्यकी एकता करना पदार्थ-शोधक साधन है तथा घोड़ा दबा देना साक्षात्साधन है।

इन चार साधनोंके दूसरे नाम अधिक प्रचलित हैं। कर्म-शोधक साधन परम्परा-साधन कहलाते हैं, करण-शोधक साधन बहिरंग-साधन कहलाते हैं और पदार्थ-शोधक साधन अन्तरङ्ग-साधन कहलाते हैं। साक्षात्साधन तो साक्षात् है ही; वैसे कोई-कोई उसे परम अन्तरङ्ग-साधन भी कहते हैं। अब इनके बारेमें थोड़ा-थोड़ा विचार करें ।

१. परम्परा-साधन (कर्मशोधक साधन) वस्तु और क्रियाके अनुचित सम्बन्धसे होनेवाले जो असाधन जीवनमें आते हैं- जैसे चोरी, व्यभिचार, अनाचार, आदि; उनकी निवृत्तिके लिए जो साधन परम्पर्या चले आ रहे हैं जैसे अस्तेय, ब्रह्मचर्य, अपरिग्रह आदि, वे परम्परा-साधन कहलाते हैं। धर्म, उपासना और योग परस्परा साधन हैं।

शारीरिक और ऐन्द्रियक संयम तथा यज्ञ-यागादिक कर्म धर्म कहलाते हैं। कर्त्तव्य कर्मका नाम धर्म है। परन्तु धर्मका आधार एकमात्र शास्त्र ही है। शास्त्रविहित कर्मका नाम धर्म है और शास्त्रसे अविहित कर्मका नाम अधर्म है। धर्मका पालन अधर्मका नाशक है। धर्म हमारे कर्मोंका नियन्ता है। वह हमारे जीवनको वासना-पथसे हटाकर मर्यादित भोग और संवैधानिक सभ्य-सामाजिक आचरणके पथपर आरूढ करता है। प्रत्येक समाज में प्रत्येक व्यक्तिके लिए एक अवश्यकरणीय धर्म होता है। इस प्रकार अधर्मसे निवृत्त करनेके कारण और कर्मका शोधक होनेके कारण धर्म वेदान्तका परम्परा-साधन है।
धर्मके अन्तर्गत उपासना सहकारी साधन भी है और स्वतन्त्र परम्परा-साधन भी है। उपासनासे धर्म वृद्धिको प्राप्त होता है और धार्मिक व्यक्तिकी उपासनामें सहज रुचि होती है। उपासनासे अन्तःकरणमें सत्त्वगुणी वासनाओंकी वृद्धि होती है तथा तमोगुणी-रजोगुणी वासनाओंमें कमी होती है। वासनाओंकी शुद्धिसे कर्म भी सहज शुद्ध होता है। इसलिए धर्मके साथ उपासना भी वेदान्तका परम्परा-साधन है। किन्तु कर्मकी अपेक्षा उपासना अन्तरङ्ग है क्योंकि धर्मका आधार शरीर है तो उपासनाका आधार मन है।

योग भी एक विशिष्ट उपासना है, अतः योग भी वेदान्तका परम्परा-साधन है। उपासना वासनाको बाँधती है तो योग मनकी चंचलता दूर करता है किन्तु उपासनाकी अपेक्षा योग अन्तरङ्ग है।

धर्ममें बहिर्मुख प्रवृत्ति, उपासना में अन्तर्मुख प्रवृत्ति और योगमें निवृत्ति रहती है। धर्ममें स्पष्ट कर्ता, उपासनामें गौण कर्ता और योगमें अज्ञात कर्ता रहता है। अतः धर्म, उपासना और योग कर्तृसाध्य हैं तथा इनसे उत्पन्न होनेवाला साध्य या स्थिति कर्मजन्य ही है, इसलिए उस साध्य/स्थितिका टूटना अनिवार्य है। अतः ब्रह्मज्ञानमें धर्म, उपासना और योग केवल कर्मशोधक साधन माने गये हैं। ये क्रियारूप होनेसे स्वयं बाहर होते हैं किन्तु इनका फल भीतर अन्तःकरणमें होता है।

२. बहिरङ्ग-साधन (करणशोधक साधन): – विवेक, वैराग्य, षट्-सम्पत्ति और मुमुक्षा- ये जो साधन-चतुष्टय हैं (जिनका वर्णन किया जा चुका है) वे बहिरङ्ग-साधन कहलाते हैं। परम्परा साधनोंसे तो ये अन्तरङ्ग हैं परन्तु श्रवण-मनन-निदिध्यासनकी अपेक्षा ये बहिरङ्ग हैं। अतः इनकी गिनती बहिरङ्ग साधनोंमें ही है।

अन्तःकरणमें स्थित अविवेक, भोगासक्ति आदि दोषोंको नष्ट करनेके कारण साधन-चतुष्टयको करण-शोधक साधन माना जाता है। दोष जिस अन्तःकरणमें निवास करते हैं उस अन्तःकरणकी सफ़ाईके लिए ही उसी में ये साधन होते हैं। इनमें बाह्य पदार्थ, क्रिया अथवा भावना नहीं है। ये निवृत्तिरूप हैं। निवृत्ति अपने अधिकरण (आश्रय) से भिन्न नहीं होती । फिर भी ये केवल अन्तःकरगके ही शोधक हैं, वस्तु-तत्त्वके बोधक नहीं हैं। इसीलिए इनका नाम बहिरङ्ग साधन हैं (आत्मसे बाहरी) ।
३. अन्तरङ्ग-साधन (पदार्थ-शोधक साधन) । वेदान्तका गुरु-मुखसे श्रवण तदनन्तर उसका मनन और निदिध्यासन ये अन्तरङ्ग साधन कहलाते हैं। ये वस्तु (ब्रह्म) के स्वरूपको लक्ष्य करते हैं। वेदान्तमें ‘पद’के अर्थका नाम पदार्थ है। जैसे ‘तन्वमसि’ एक वेदान्त-वाक्य है जिसका अर्थ है ‘वह तू है।’ इसमें ‘तत्’ और ‘त्वम्’ ये दो ‘पद’ हैं। इनमें तत्-पदार्थ है जगत्कारण ईश्वर और त्वं-पदार्थ है कर्ता-भोक्ता-संसारी-परिच्छिन्न जीव । ‘अमि’ पद इन दोनों पदार्थोंकी एकताको सूचित करता है।

इस प्रकार गुरु-मुखसे, सत्यम्प्रदायकी रीतिसे, वेदान्तोंमें जो उपर्युक्त दो पदार्थोंकी एकताका निश्चय है वही श्रवण कहलाता है। फिर जैसा सुना है उसके द्वारा अभेद साधक और भेद-वाधक युक्तियोंसे ब्रह्मका चिन्तन करना ‘मनन’ है। तदनन्तर बुद्धिवृत्तिका निश्चय किये हुए अद्वैतार्थमें प्रवाह तथा विजातीय वृत्तियोंका तिरस्कार, यह निदिध्यासन कहलाता है। निदिध्यासनकी परिपक्व अवस्था ही वेदान्तकी समाधि है। योगकी समाधि या तो परम्परा-साधन है अथवा षट्सम्पत्तिके अन्तर्गत ‘समाधान’ की कक्षामें होनेसे वर्वाहरंग-साधनके अन्तर्गत है। (इन सबका वर्णन यथास्थान आगे किया जायेगा) ।

श्रवण, मनन और निदिध्यासन ज्ञानके साक्षात्साधन नहीं हैं। परन्तु वस्तुका लक्ष्य करानेके कारण ये अन्तरंग साधन कहलाते हैं। वेदका तात्पर्य अभेद ब्रह्मके प्रतिपादनमें है या भेदके प्रतिपादनमें ? यहं जो प्रमाण (वेद) के सम्बन्धमें संशय है वह श्रवणसे दूर हो जाता है। ‘ब्रह्मका हमारे साथ जो सम्वन्ध है वह भेदका ही है, अभेदका नहीं हो सकता’- यह जो वुद्धिमें असंभावना है, वह मननसे दूर होती है। वेद प्रमाण है ब्रह्मके विषयमें । इसलिए वेद प्रमाण है और ब्रह्मान्मैक्य-वोध प्रमेय है। तो प्रमाणगत संशय श्रवणसे दूर होता है और प्रमेयगत संशय मननसे दूर होता है। किन्तु प्रमाणगत संशय और प्रमेयगत असंभावना दूर हो जानेपर भी पूर्व-पूर्वके ( अविद्या-कालीन ) अभ्यासके कारण देहादि जागतिक पदार्थोकी सत्यता और ब्रह्मकी अन्यताका भ्रम पुनः पुनः उपस्थित हो जाता है। इसको ‘विपर्यय’ या विपरीत बुद्धि कहते हैं। बुद्धिका यह विपर्यय-दोष निदिध्यासनसे दूर होता है।

प्रतिबन्धरहित साधक श्रवणमात्रसे कृतकृत्य हो जाता है। क्योंकि जहाँ वस्तु अपरोक्ष होती है वहाँ श्रवणमात्रसे अपरोक्षज्ञान ही होता है
और जहाँ वस्तु परोक्ष होती है वहाँ श्रवणसे परोक्षज्ञान ही होता है तथा वस्तुको प्राप्त करनेके लिए अन्य साधन अपेक्षित होता है। ब्रह्म सदा अपरोक्ष है क्योंकि वह अपना आत्मा हो है। उसमें अविद्या न कभी थी, न है और न होगी। श्रवणसे केवल प्रातोतिक अविद्याकी निवृत्ति हो जाती है।3° हाँ जिन साधकोंमें संशय-विपर्ययरूप प्रतिबन्ध शेष हैं उन्हें श्रवण-मात्रसे ज्ञान नहीं होता। उन्हें संशयकी निवृत्तिके लिए मनन और विपर्ययकी निवृत्तिके लिए निदिध्यासनकी आवश्यकता रहती है।

४. साक्षात्साधन-अपने आपको अद्वितीय ब्रह्म न जानना ही अज्ञान है। इम अज्ञानकी पूर्णतया निवृत्ति करनेवाला जो ज्ञान है वही साक्षात्साधन है। यह सम्पूर्ण साधनोंका फल है। आत्माको ब्रह्म बतानेवाले जो श्रुतिके महावाक्य हैं 3′ – जैसे ‘तत्वमसि’ (वह तू है), ‘अहं ब्रह्मास्मि’ (मैं ब्रह्म हूँ), ‘प्रज्ञानं ब्रह्म’ (प्रज्ञान ब्रह्म है), ‘अयमात्मा ब्रह्म’ (यह आत्मा ब्रह्म है); उनके अखण्डार्थको धारण करनेवाली विकल्परहित जो बुद्धि-वृत्ति है उसको ही ज्ञानका साक्षात्साधन कहा जाता है। इसीको ब्रह्माकार-वृत्ति भी कहते हैं। यह वृत्ति अधिकारो मुमुक्षुको मात्र श्रवणसे भी हो सकती है अथवा श्रवण, मनन निदिध्यासनके परिपाकसे भी हो सकती है। यह वृत्ति अज्ञानवृत्तिका नाश कर देती है और स्वयं अपने आश्रय स्वयंप्रकाश ब्रह्मके साथ अभिन्न हो जाती है।
जो संस्कृत नहीं जानते उनके लिए ब्रह्म‌विद् गुरु द्वारा अपनी-अपनी बोली अथवा भाषामें बोले गये जो भो इन महावाक्योंके समानार्थक वाक्य हों, जिनसे अपनी पूर्णताका बोध होता हो, जिनमें आत्मा, परमात्मा और जगतुका एकत्व प्रतिपादित होता हो, उन्हीं वाक्योंसे जन्य प्रज्ञा साक्षात्साधन होगी । ३२ फिर भी कर्म, करण और पदार्थका शोधन यथा-विधि सम्पूर्ण तो अवश्य होना ही चाहिए।

३०. इसमें विवरण-प्रस्थान और भामती-प्रस्थानका थोड़ा-सा मतभेद है। शब्दसे अपरोक्ष ज्ञान या वृत्तिसे ? उपहितका ज्ञान अथवा शुद्धका ? अद्वैत सम्प्रदाय में दोनों ही अपनी-अपनी प्रक्रियासे युक्तियुक्त हैं।

३१. आत्मा और ब्रह्मकी एकताके प्रतिपादक श्रुतिवाक्योंको ‘महावाक्य’ कहते हैं ।

३२. ब्रह्मरूप अहि ब्रह्मवित ताकी बानी वेद ।
भाषा अथवा संस्कृत करत भेद-भ्रम छेद ।। (विचारसागर ३.१०)

इस प्रकार परम्परा साधन तीन हैं- धर्म, उपासना और योग। इन तीनोंको एक नामसे कह सकते हैं निष्काम कर्म। बहिरंग साधन चार हैं- साधन-चतुष्टय । अन्तरंग साधन तीन हैं- श्रवण, मनन, निदिध्यासन । साक्षात्साधन एक है- महावाक्यजन्य प्रज्ञा । अविद्या निवृत्तिके ये कुल नौ साधन हैं। इनमें निष्काम-कर्म और साधन-चतुष्टयका सम्बन्ध चित्त-शुद्धिसे है और शेष ज्ञानके वास्तविक साधन हैं।

६. चित्त-शुद्धि

शुद्धान्तःकरण मुमुक्षु वेदान्तका अधिकारी है। अब अन्तःकरण-शुद्धिके साधनोंपर किंचित् विशेष विचार करते हैं। श्रुति कहती है: आहारशुद्धौ सत्त्वशुद्धिः (छान्दोग्य० ७.२६.२) अर्थात् आहारकी शुद्धिसे अन्तःकरणकी शुद्धि होती है। श्रीशंकराचार्यजी महाराजने ‘आहार’का अर्थ किया है: ‘आह्रियत इत्याहारः शब्दादिविषयज्ञानम्’ । भोक्ताके भोगके लिए जो भी शब्द-स्पर्श-रूप-रस-गन्धका ज्ञान है वह सब आहार है। उस विषय-विज्ञानकी शुद्धि ही आहार-शुद्धि है। तो, इन्द्रियोंके द्वारा पवित्र विषयोंका संयमपूर्वक सेवन करनेसे अन्तःकरणकी शुद्धि होती है, यह श्रीशंकराचार्य भगवान्का आशय है।

श्रीरामानुजाचार्यजी महाराज ‘आहार’ पदका अर्थ करते हैं ‘भोजन’ । भोजनमें तीन प्रकारकी शुद्धि आवश्यक है। प्रथम तो भोजनकी जाति शुद्ध हो, माने वह स्वरूपसे शुद्ध हो। माँसादि, प्याज, लशुन आदि जातिसे ही अशुद्ध भोजन हैं। दूसरे भोजनमें निमित्त-शुद्धि हो । अर्थात् वह शुद्ध बर्तनोंमें बना हो ओर रखा गया हो तथा कोई अशुद्ध वस्तु उसमें न पड़ गयी हो या किसीका जूठा किया हुआ न हो। तीसरे उसमें आश्रय-शुद्धि हो जैसे वह रजस्वला स्त्री, दुःखी मनुष्यके द्वारा न बनाया हो और बेईमानी या अधर्मकी कमाईका न हो। जो लोग अन्नसे मनकी उत्पत्ति मानते हैं उनके मतमें आहारका सब प्रकारसे शुद्ध होना आवश्यक है। 33 सब शुद्धियों में अर्थकी शुद्धि सबसे श्रेष्ठ है। जिसका अर्थ शुद्ध है वह स्वयं शुद्ध है, पानी-मिट्टीसे की गयी शुद्धि ही शुद्धि नहीं है।

३३. श्रीरामानुजाचार्यने आहारके विवेकले प्रारम्भ करके कुल सात साधन अन्तःकरण शुद्धिके माने हैं विवेक; विमोक, (छोड़नेकी शक्ति); क्रिया- दूसरा मत है कि कर्मके द्वारा अन्तःकरणकी शुद्धि होती है। कर्मसे संस्कार और संस्कारसे वासना बनती है। इसलिए यदि हमारी क्रिया शुद्ध हो जाय – निषिद्ध कर्मका परित्याग होकर विहित कर्म ही हों तो चित्त-शुद्धि हो जायेगी। इन दोनों मतोंमें अन्तर यह है कि अन्नमय कोष में जिनकी अवस्थिति होगी, उनका आहार-प्रधान अन्तःकरण-शोधन होगा और प्राणमय कोषमें जिनकी अवस्थिति होगी उनका अन्तःकरण-शोधन क्रिया-प्रधान होगा। कर्ममें भी वह कर्म करणीय है जिसे करते हुए ग्लानि न हो, अपने में तृप्ति तथा पवित्रताका अनुभव हो । ३४

तीसरा मत है कि चित्तकी वृत्ति शुद्ध होनेसे अन्तःकरणकी शुद्धि हो जायेगी । अन्तःकरण विज्ञानमय-वासनात्मक है। वह शुद्ध वासनाके उदयसे अशुद्ध होता है। अतः इनके मतमें अन्तःकरणकी शुद्धि उपासनासे होती है। धर्मसे पचास प्रतिशत इच्छाएँ (अधर्मकी) छूट जाती हैं और उपासनामे इष्टको छोड़कर शेष उनचास इच्छाएँ भी निवृत्त हो जाती हैं।

चौथा मत है कि सम्पूर्ण वासनाओंको अभिभूत करके समाधि प्राप्त करनी चाहिए – यह योग-मार्ग है। चित्तको सर्वथा निविषयक बना देना । न मनमें विषय आयेगा, न अशुद्धि आयेगी। दोष तभी होते हैं जब अन्तः-करण सविषय होता है। मनमें जब पुरुष या स्त्री है तब काम है। जब धन है तब लोभ है। जब शत्रु है तब द्वेष है। यदि चित्त निविषयक हो जाय तो न काम, न क्रोध, न लोभ, न मोह। सद्गुण निविषयक हैं। ब्रह्मचर्यं में स्त्री या पुरुषकी अपेक्षा नहीं है, अतः ब्रह्मचर्य निविषयक है। इसी प्रकार सन्तोष, शान्ति, निर्मोह सब निविषयक हैं। वास्तवमें अन्तःकरणकी शुद्धि एक ही सद्गुणमें है-और वह है शान्ति । इसी शान्तिके नाम हैं ब्रह्मचर्य, सन्तोष आदि सद्गुण । सद्गुणोंके अनेक नाम तो दोषोंके

(क्रियायोगके द्वारा परमेश्वरकी आराधना); कल्याण (जो भी अपने कल्याणके साधन हैं उनका ग्रहण); अभ्यास (कल्याणके साधनोंका अभ्यास); अनवसाद (दुःख और प्रतिकूलतामें हीन भाव न आना); तथा अनुद्धर्ष (सुख और अनुकूलतामें हर्षसे पागल न होना) ।

३४. यत्कर्म कुर्वतोऽस्य स्यात् परितोषोऽन्तरात्मनः ।
तत्प्रयत्नेन कुर्वीत विपरीतं तु वर्जयेत् ॥

व्यावर्तक भेदसे कल्पित हैं- जैसे कामका व्यावर्तक ब्रह्मचर्य और लोभका व्यावर्तक सन्तोप है ।

पाँचवाँ मत है कि अन्तःकरण न अन्न-जन्य है, न प्राण-जन्य, न कर्म-जन्य है और न वासना-जन्य । मनकी सत्ता ही नहीं है। न यह बाहर है न भीतर हृदयमें है। इसके लिए कोई प्रयत्न करनेकी जरूरत नहीं है। यदर्थप्रतिभानं तन्मन इत्यभिधीयते । विपयकी प्रतीतिको ही मन कहते हैं। जहाँ अन्यरूपसे विषयकी प्रतीति है, वहाँ चेतनको ही मन कहते हैं। जहाँ अन्यथा रहित विषयकी प्रतीति है, वहाँ मनको ही चेतन कहते हैं। अतः मनमें शुद्धि-विषयक प्रतीतिका नाम अन्तःकरणकी शुद्धि है और अशुद्धि-विषयक प्रतीतिका नाम अन्तःकरणकी अशुद्धि है। हम केवल शुद्धका चिन्तन करें। शुद्ध माने जिसमें दूसरो वस्तु मिली हुई न हो। इस प्रकार अद्वैत ब्रह्मका चिन्तन ही अन्तःकरणकी शुद्धि है।

तुम्हारा अन्त. करण जन्मजात शुद्ध है। जितने समय तुम परमात्माका चिन्तन करते हो उतने समय तुम्हारा अन्तःकरण शुद्ध रहता है, और जितने समय संसारका चिन्तन करते हो उतने समय अशुद्ध रहता है। बहुत दिनोंतक अभ्यास करोगे तब अन्तःकरण शुद्ध होगा, ऐसा नहीं है। परमात्माके चिन्तनमें लगो, बस अन्तःकरण शुद्ध हो गया। चिन्तनके अतिरिक्त अन्तःकरण कुछ है नहीं। इस प्रकार शुद्ध परमात्माका चिन्तन प्रारम्भ करते ही तुम शुद्धान्तःकरण होनेके कारण वेदान्त-श्रवणके अधिकारी हो ।

३५. न बाह्ये नापि हृदये सद्रूपं विद्यते मनः ।

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