मनुष्य जीवन में मुमुक्षा दुर्लभ है

!! वेदान्त-बोध !!

प्रबोधक :
अनन्तश्री स्वामी अखण्डानन्द सरस्वतीजी महाराज

प्रथम खण्ड – अधिकारी निरूपण

अध्याय 1 -> मनुष्य-जीवनमें मुमुक्षा दुर्लभ है

  • १. मनुष्यत्व दुर्लभ है
  • २. मुमुक्षुत्व दुर्लभ है
  • ३. महापुरुषसंश्रय दुर्लभ है

अध्याय 2 -> मुमुक्षाको पूर्तिका उपाय – ब्रह्मविचार

भगवान् श्री शंकराचार्यजी महाराज ने तीन चीजों को दुर्लभ बताया है :

  1. मनुष्यत्व,
  2. मुमुक्षुत्व तथा
  3. महापुरुषसंश्रय ।

१. मनुष्यत्व दुर्लभ है

मनुष्य शरीर ईश्वर के अनुग्रह से प्राप्त होता है। मनुष्य-शरीर की दुर्लभता इसी बात से स्पष्ट है कि संसार के कुल प्राणियों की संख्या में मनुष्यों की संख्या का अनुपात नगण्य ही है। किन्तु इसकी दुर्लभता के और भी बहुत-से हेतु हैं।

‘मनुष्य’ शब्द का अर्थ है- मनु की संतान । मनु की पत्नी थी ‘श्रद्धा’ । अतः जो श्रद्धा और मनन दोनों को लेकर सृष्टि में अवतीर्ण हुआ है, वह मनुष्य है। अथवा ‘मनसा सीव्यति इति मनुष्यः’- जो मन से सम्बन्ध जोड़ लेता है वह मनुष्य है। यही कारण है कि मनुष्य सृष्टि में कार्य-कारण को देखकर सृष्टि के आदि-कारण और प्रलयाधिष्ठान का विचार करके उन दोनों में जो एक वस्तु है उस ब्रह्म को वह जान लेता है।

सृष्टि में चार प्रकार के प्राणी प्रसिद्ध हैं- उद्भिज्ज, स्वेदज, अण्डज और पिण्डज (जरायुज)। उद्भिज्ज प्राणी वे हैं जो धरती को फोड़कर निकलते हैं, जैसे वृक्ष । इनमें चेतना की एक कला विकसित होती है। स्वेदज प्राणी वे हैं जो स्वेद (पसीने) से उत्पन्न होते हैं, जैसे जूं, खटमल । इनमें चेतना की दो कलाएँ विकसित होती हैं।

अण्डज प्राणी वे हैं जो अण्डे से उत्पन्न होते हैं, जैसे पक्षी । इनमें चेतना की तीन कलाएँ विकसित होती हैं। जरायुज प्राणी वे हैं जो जेर में बँधे उत्पन्न होते हैं, जैसे चतुष्पाद पशु और द्विपाद मनुष्य ।

पशुओं में चेतना की चार और मनुष्यों में पाँच कलाएँ विकसित होती हैं। मनुष्यों में भी सत्पुरुषों में छः और जीवन्मुक्तों में सात कलाएँ विकसित होती हैं। जीवन्मुक्तों में जिनमें आठ, नौ या दश कलाएँ विकसित होती हैं वे ‘अवतार’ कोटि में आ जाते हैं।

१. दुर्लभं त्रयमेवैतद् देवानुग्रहहेतुकम् । मनुष्यत्वं मुमुक्षुत्वं महापुरुषसंश्रयः ॥
(वि० चू० ३)

जहाँ तक हो सके एक कला से, उससे न बने तो दो, तीन या चार कलाओं से मनुष्य अपने जीवन का निर्वाह कर सकता है। परन्तु मनुष्यत्व की सिद्धि तो पाँच या उससे अधिक कलाओं के विकास पर निर्भर है।

परब्रह्म परमात्मा में, जो अपना स्वरूप ही है, तीन भाव माने जाते हैं- सत्, चित् और आनन्द । मनुष्य में इन्हीं भावों का जब विकास होता है तभी उसमें पाँच अथवा अधिक कलाओं का विकास माना जाता है। यह विकास मनुष्य में ही सम्भव है, अतः मनुष्य शरीर दुर्लभ है।

सत् के विकास में कर्म का विकास है। चित् के विकास में ज्ञान का विकास है और आनन्द के विकास में सुख का विकास है। कर्म, ज्ञान और आनन्द का जैसा विकास मनुष्य के जीवन में है वैसा सृष्टि में कहीं नहीं है। विश्व की सभ्यता और संस्कृति का इतिहास इसका साक्षी है। यह विकास अभी जारी है। इसलिए मनुष्यजन्म दुर्लभ है, जिसको प्राप्त करके हम संसार के सम्पूर्ण बन्धनों, दुःखों और अनर्थों से छूट सकते हैं।

पेड़-पौधे अपनी खुराक अपने पाँव से ग्रहण करते हैं और ऊपर की ओर बढ़ते हैं। शास्त्र में इनको ‘ऊर्ध्वस्रोत’ बोलते हैं। प्रकृति ने अभी उन्हें बढ़ने के लिए बहुत-सा अवकाश दिया है।

पक्षी आगे से भोजन लेते हैं और वह पीछे जाता है। वे ‘तिर्यक्-स्रोत’ हैं। पशु भी तिर्यक् स्रोत हैं। स्वेदज प्राणी भी तिर्यक्-स्रोत हैं। परन्तु मनुष्य ‘अधःस्रोत’ है। वह भोजन ऊपर से लेता है और नीचे की ओर फेंकता है।

विद्वानों ने इसका अर्थ किया है कि प्रकृति स्वयं में प्राणी को जितना उन्नत बना सकती थी उतना उसने मनुष्य को बना दिया है। इसके आगे मनुष्य अपना स्वयं विकास करे ।

वह अपनी बुद्धि को इतना विकसित कर सकता है कि वह परमेश्वर से एक हो जाय। यह अवसर अन्य प्राणि-शरीर में प्राप्त नहीं है। इसलिए, मनुष्य का शरीर मिलना दुर्लभ है।

इस मनुष्य-शरीर में आप आनन्द की पूर्णता का अनुभव कर सकते हैं, ज्ञान की पूर्णता का अनुभव कर सकते हैं और अविनाशी जीवन प्राप्त कर सकते हैं। अविनाशी ईश्वर, पूर्ण ज्ञानस्वरूप ईश्वर, पूर्णानन्दस्वरूप ईश्वर आपके हृदय में प्रकट हो सकते हैं। इसलिए यह मनुष्य का शरीर ईश्वर के अनुग्रह से प्राप्त होता है।

हम स्वयं चाहके मनुष्य-शरीर प्राप्त नहीं कर सकते । मनुष्य-जन्म पाने में हमारी स्वतन्त्रता नहीं तो पूर्वजन्मों के पुण्यों के फल से ईश्वर की कृपा से (अर्थात् प्रकृति के विकास के धर्म के फलस्वरूप) यह मनुष्य देह प्राप्त हुआ है। अतः यह बड़ा दुर्लभ है। मनुष्य में स्त्री भी है और पुरुष भी । दोनों की अपनी-अपनी विशेषताएँ हैं। किन्तु ईश्वर का अनुग्रह दोनों पर है क्योंकि दोनों सद्बुद्धिसम्पन्न मनुष्य हैं।

श्रीमद्भागवत में आया है कि ईश्वर ने अपनी माया से तरह-तरह के शरीर बनाये – वृक्ष, रेंगनेवाले कीड़े, पशु, पक्षी, मच्छर आदि परन्तु उनको देखकर उनको कोई संतोष नहीं हुआ। परन्तु उसे आनन्द, तब हुआ जब उसने मनुष्य-शरीर की रचना को देखा ‘अहा! मैंने ऐसा शरीर बनाया है जिसमें ब्रह्मानुभूति की योग्यता है।’ बात यह हैं कि सब प्राणी केवल ऐन्द्रियक विषयों को ही जानते हैं, किन्तु अतीन्द्रिय वस्तु परमेश्वर के दर्शन का जो यन्त्र है- प्रमाणवृत्ति, वह मनुष्य के अतिरिक्त और किसी प्राणी के पास नहीं है।

२. सृष्ट्ठा पुराणि विविधान्यजयात्मशक्त्या, वृक्षान् सरीसृपपशून् खगदंशमत्स्यान् । तैस्तैरतुष्टहृदयः पुरुषं विधाय, ब्रह्मावलोकधिषणं मुदमाप देवः ॥
( भा० ११.९.२८)

न उनके पास साधन-चतुष्टय का अभ्यास है, न उनके पास वेद-शास्त्रादिका श्रवण है, न तो ‘अहं ब्रह्मास्मि’ इत्याकारक वृत्ति के उदय होने की कोई सामग्री ही उनके पास है। अतः मनुष्य के अतिरिक्त अन्य कोई प्राणी ब्रह्मानुभूति की योग्यता नहीं रखता। इसलिए केवल मनुष्ययोनि में ही तत्त्वज्ञान हो सकता है।

ईश्वर का यह बड़ा अनुग्रह है कि उसने हमको यह मनुष्य का शरीर प्रदान किया है। यह तत्त्वज्ञान की प्राप्ति के लिए ही है क्योंकि अन्ययोनियों से मनुष्य की विलक्षणता इसी योग्यता में है। अन्य बातें तो सभी योनियों में उपलब्ध हो जाती हैं।

२. मुमुक्षुत्व दुर्लभ है

मनुष्य होकर मुमुक्षु होना, यह दूसरी दुर्लभ वस्तु है। ‘अवधूतगीता’ के प्रारम्भ में एक श्लोक है और यह श्लोक ‘खण्डनखण्डखाद्य’ में भी है। इसमें कहा है कि “ईश्वर के अनुग्रह से ही मनुष्य के मन में अद्वैत की वासना का उदय होता है। यह बड़े-बड़े भयों से बचाती है परन्तु होती है सृष्टि में दो-तीन को ही।” यह अद्वैत-वासना ही मोक्षेच्छा है और इसकी दुर्लभता दिखलाने के लिए हो दो-तीन की संख्या बतायी है। (दो-तीन संख्या में इसका तात्पर्य नहीं है)।

३. ईश्वरानुग्रहादेव पुंसामद्वैतवासना । महाभयपरित्राणा द्वित्रीणामुपजायते ॥
( अव० गीता १.१ )

इसी प्रकार गीता में भी कहा है कि “हजारों मनुष्यों में कोई ही ईश्वर-प्राप्ति के लिए प्रयत्न करता है और उन हजार-हजार सिद्धों में भी किसी-किसी को ही तत्त्वज्ञान होता है।”

४. मनुष्याणां सहस्रेषु कश्चिद्यतति सिद्धये । यततामपि सिद्धानां कश्चिन्मां वेत्ति तत्त्वतः ॥
(गीता ७.३ )

मुमुक्षा अर्थात् मोक्ष की इच्छा- माने छूटने की इच्छा। जिन बन्धनों में आप फँसे हैं उनसे छूटने की इच्छा का नाम मुमुक्षा है : मोक्तुम् इच्छा मुमुक्षा । यह मोक्षेच्छा जिस मनुष्य में रहती है, उसका नाम है मुमुक्षु ।

आप किन बन्धनों में फंसे हैं? असल में आप किसी भी बन्धन में नहीं हैं। किसके साथ आपकी हड्डी जुड़ी हुई है ? किसके साथ आपके हाथ-पाँव बँधे हुए हैं ? सारे बन्धन मानसिक है। मन की ऐसी आदत पड़ गयी है कि यह कहीं-न-कहीं अपने को बाँध लेता है। बाह्य विषय के साथ बन्धन नहीं होता। यह मन विषय की कल्पना के बिना रहता ही नहीं है, इसलिए इसी मनःकल्पित विषय से मिलता-जुलता बाह्यविषय का जो स्वरूप है उस विषय से ही बन्धन प्रतीत होता है।

विषय भी कल्पित है और उसका बन्धन भी कल्पित है। सम्पदा ने कभी आपको अपने साथ नहीं बाँधा, मन ने आपको सम्पदा के साथ बाँधा है। सम्पदा तो अपने मालिक को पहिचानती ही नहीं है! व्यक्तियों के साथ भी सारे सम्बन्ध मानसिक हो हैं।

विषयों में सत्यत्व-बुद्धि और सुख-बुद्धि उन-उन विषयों में राग, द्वेष और सम्बन्ध की कल्पना को जन्म देते हैं। उसी से बन्धन होता है।

बन्धन में जब सुख मानने लगते हैं तब उससे छूटने की इच्छा ही समाप्त हो जाती है। असल में हम छोड़ना क्या चाहते हैं ? मकान, आदमी, धरती, रुपया-पैसा-जेवर- ये कुछ छोड़ना नहीं चाहते। हम तो इनसे प्राप्त होनेवाले दुःख को छोड़ना चाहते हैं। दुःख और दुःखदायी को हम छोड़ना चाहते हैं और सुख एवं सुखदायी को पकड़ना चाहते हैं ।

इसलिए मुमुक्षा का प्रारम्भ वहाँ होता है, जहाँ निसर्ग से प्राप्त होनेवाले सुख-दुःख का विवेक प्रारम्भ होता है। जहाँ-जहाँ और जो-जो दुःखरूप या दुःखदायी मालूम पड़ने लगेगा उसको आप छोड़ते जायेंगे और जहाँ-जहाँ तथा जो-जो सुखरूप या सुखदायी मालूम पड़ता जायेगा, उसको आप पकड़ने की चेष्टा करते जायेंगे। जो सुखरूप या सुखदायी भी प्रतीत होता है परन्तु जो आने-जानेवाला है, वह अनित्य सुख भी दुःखरूप हो जायेगा । अतः दुःख और अनित्यता से जब वैराग्य प्रारम्भ होता है तभी असली मुमुक्षा का प्रारम्भ होता है।

पहिले वस्तुओं और व्यक्तियों से, उनके सम्वन्ध से, छूटने की इच्छा होती है; यह अवर-वैराग्य की स्थिति में मुमुक्षा का स्वरूप है।

बाद में उस अन्तःकरण से ही छूटने की इच्छा होती है जिसमें ये सब इच्छाएँ होती हैं। यह शुद्ध वैराग्य की स्थिति में मुमुक्षा का स्वरूप है।

राग-द्वेष अन्तःकरण में होते हैं। जिससे राग-द्वेष की इच्छा होती है वही यदि कट जाय तो बन्धन की आत्यन्तिक निवृत्ति हो जाय ! योगवासिष्ठ में बृहस्पति ने अपने पुत्र ‘कच’ को उपदेश किया कि परमानन्द की प्राप्ति के लिए त्याग करो। कच एक बरस घूम आया फिर भी त्याग नहीं हुआ। तब उसने दण्ड-कमण्डलु फेंक दिया। ऐसे कई बार त्याग किया। अन्त में कच बोला- ‘इस शरीर को चिता में जला देंगे।’ बृहस्पति ने हाथ पकड़ा -‘नहीं बेटा ! इसका नाम त्याग नहीं है। चित्तत्यागं विदुः सर्वत्यागम् । अर्थात् ‘जब चित्त का त्याग होगा तब सर्वत्याग होगा।’ चित्त का त्याग किये बिना कोई जीव मुक्त नहीं हो सकता। अतः चित्त-त्याग को इच्छा ही सच्ची मुमुक्षा है।

चित्त के त्याग में ही ईश्वर का अनभव है। अतः ईश्वर के अनुग्रह से ही मुमुक्षा चित्त में उदय होती है। जिसको ईश्वर आत्मसात् करना चाहता है उसी के हृदय में कृपा करके वह मुमुक्षा उदय करता है। इसलिए मुमुक्षा दुर्लभ है।

३. महापुरुषसंश्रय दुर्लभ है

मुमुक्षुत्व की सिद्धि कैसे होगी ? वह होगी किसी महापुरुष के संश्रयण से । यह महापुरुष की शरणागति और उसके आश्रय की प्राप्ति भी अत्यन्त दुर्लभ वस्तु है।

प्रश्न यह है कि दुःख से कैसे छूटें? कुछ साधन ऐसे हैं जिनसे दुःख थोड़ी देर के लिए भुलाया जा सकता है। आप किसी विहित कर्म में लग जाइये । यज्ञ करो, कुशकण्डिका करो । उतनी देर जितनी देर आप पुण्य कर्म करेंगे दुःख भूला रहेगा। अच्छा, आपको जो प्रिय हो- स्त्री, देवता, ईश्वर, उसका मन ही मन आलिङ्गन कीजिये, ध्यान कीजिये । तात्कालिक आपका दुःख भूल जायेगा। समाधि लगा लो, तब भी आपका दुःख उतने काल के लिए छूट जायेगा। और बेहोशी की गोली खा लो तो भी दुःख भूल जायेगा ।

परन्तु यह जो दुःख का तात्कालिक उपचार है वह मुमुक्षु को संतुष्ट नहीं कर सकता । क्योंकि यह थोड़ी देर के लिए होता है। दुःखनाश के साधन सहज सुख के प्रकाशक नहीं हैं, कृत्रिम सुख का विकास करते हैं। थोड़ी देर के लिए समाधि लगा लो, वह टूट जायेगी। प्रियतमाकार वृत्ति कर लो, बेहोशी की गोली खा लो, यज्ञ में लग जाओ; थोड़ी देर दुःखाभाव रहेगा फिर वही दुःख ! इनमें सहज सुख का विकास नहीं है।

सहज सुख माने परमानन्द । सहज सुख केवल दुःख का अभाव या अनर्थ की निवृत्ति नहीं है, स्वरूपभूत परमानन्द का साक्षात्कार है; और स्वस्वरूप भी वह जो देश, काल, वस्तु से अपरिच्छिन्न है उसके परमानन्द का साक्षात्कार है।

समाधि में केवल दुःखाभाव होता है, सहज सुख को प्राप्ति नहीं होती, माने परमानन्द नहीं मिलता। अतः समाधि-सुख न मोक्ष है और न मोक्ष का साक्षात् साधन ।

उपासना प्रियतमाकार वृत्ति है। उसमें मुक्ति उपास्य की कृपा से प्राप्त होती है। उपासना की मुक्ति से पराधीनता की मुक्ति नहीं होगी। देने से मुक्ति मिलेगी ? जो देगा वह कभी लौटा भी सकता है।
कर्म से जो मुक्ति प्राप्त होगी वह कर्मजन्य होने से विनाशी होगी। कर्म का बल क्षीण होने पर मोक्ष का भी क्षय हो जायेगा। पूर्वमीमांसकों और स्वामी दयानन्द दोनों ने इस बात को स्वीकार किया है।

इस प्रकार कर्म, उपासना और योग-समाधि से दुःख की आत्यन्तिक निवृत्ति नहीं हो सकती। बौद्ध मोक्ष के भेद मानते हैं- निर्वाण, महानिर्वाण, परिनिर्वाण और अतिनिर्वाण । परन्तु ये सब मनःस्थिति के स्तर हैं ।

कुछ दार्शनिक मरने पर मोक्ष मानते हैं। इनमें भी कुछ क्रममुक्ति मानते हैं अर्थात् मरकर पहिले ब्रह्मलोक में जाओ और फिर मुक्ति होगी। दूसरे सद्योमुक्ति मानते हैं माने मरने पर तत्काल मुक्ति । कुछ दार्शनिक जीवन्मुक्ति मानते हैं अर्थात् जीवित रहते हुए ही मुक्ति । महात्मा ने कहा -देखो भाई, तुम मुक्ति के भी भेद करते हो ? मुक्ति तो भेद-भाव को मिटाती है। मुक्ति अभेदबोध है। उसमें भेद क्यों बनाते हो ?

मैंने श्रीउड़िया बाबाजी महाराज से पूछा- ‘जीवनमुक्ति अच्छी या विदेहमुक्ति ?’ वे बोले- ‘दोनों की कल्पना ही अमंगल है। हम जब, जो, जैसे हैं मुक्त ही हैं। हमारी लहर का नाम परमानन्द है, हमारे प्रकाश का नाम चैतन्य है, हमारे है-पने का नाम अधिष्ठान ब्रह्म है।’

असल में दुःख की आत्यन्तिक निवृत्ति अपने अधिष्ठान आत्म-चैतन्य से पृथक् अनुभूत नहीं हो सकती। अनन्त सच्चिदात्मा ही सहज परमानन्द है। अतः मोक्ष अपने आत्मा का ही एक नाम है। अविद्या-निवृत्ति से उपलक्षित आत्मा ही मोक्षस्वरूप है। इस ज्ञान में न श्रम है, न पराधीनता। केवल नित्य प्राप्त आत्मवस्तु की ही प्राप्ति है, किसी अप्राप्त स्थिति, अवस्था या वस्तु की प्राप्ति नहीं है।

आत्मा अज्ञान से हो बद्ध प्रतीत होता है; ज्ञान से वह नित्य मुक्त ही है।

अज्ञान से जो वस्तु सिद्ध होती है वह वास्तव में होती नहीं है और ज्ञान से जो वस्तु प्राप्त होती है वह पहिले से ही मिली रहती है। अतः आत्मा में बन्धन है नहीं और मोक्ष उसका स्वभाव है, स्वरूप है।

इस प्रकार मुमुक्षा की परिसमाप्ति मोक्ष की सिद्धि में है और मोक्ष की सिद्धि आत्मा के सिद्ध मोक्षस्वरूप के ज्ञान में है। यह ज्ञान न कर्माङ्ग है, न उपासनाङ्ग और न योगाङ्ग। यह तो आत्मा के बद्धस्वरूप के निषेध और मोक्षस्वरूप के प्रामाण्य का अंग है। वह प्रमाण भी भ्रम, प्रमाद, करणापाटव एवं विप्रलिप्सा-रूप दोषों से मुक्त वेदोक्त महावाक्यजन्य अखण्डार्थधी (प्रमाण वृत्ति) सम्बन्धी है। वह किसी महापुरुष की शरणागति से ही संभव है, किसी और प्रकार से नहीं ।

सेठों का संग करते हैं। डाक्टरों इत्यादि का संग परन्तु ब्रह्मज्ञानियों का लोक में जो धन कमाते हैं वे धनी-शिरोमणि वकालत, डाक्टरी सबमें अपने से बड़े वकीलों, आवश्यक है। किन्तु आप ब्रह्मज्ञान तो चाहते हैं, संग नहीं चाहते ! महापुरुषों का संग करने में संकोच-शरम क्यों ?

आप गीता रेडियो पर सीखना चाहते हैं? सोफ़े पर लेटे हैं और सीख रहे हैं गीता रेडियो पर! ऐसा क्यों ? इसीलिए न कि इसमें आपके अहंकार की पूजा बनी रहती है। किन्तु अहंकार की पूजा दूसरी चीज है और मोक्ष-प्राप्ति या परमात्मा की प्राप्ति दूसरी चीज है।

महापुरुषसंश्रय का अर्थ है अभिमान छोड़कर सत्पुरुष की शरणागति । अपने बल, शरीर का सौन्दर्य, धन, जाति विद्या, बुद्धि, पद के सारे अभिमान छोड़कर आचार्य की शरण लेनी पड़ती है ।

आचार्याद्धचैव विद्या विदिता साधिष्ठं प्रापति (छान्दो० ४.९.३)

‘आचार्य से जानी हुई विद्या ही प्रतिष्ठित होती है।’ तत्त्वज्ञान प्राप्त करने की यही विधि है।

स विज्ञानार्थं गुरुमेवाभिगच्छेत् (मुण्डक० १.२.१२)

‘तत्त्वज्ञान प्राप्त करने के लिए गुरु की शरण में ही जाये, घर में लाकर वेदान्त का ट्यूशन नहीं लिया जाता; उसमें तो गुरुजी पैसे पर खरीदे जायेंगे । गुरुजी छोटे हो जायेंगे और शिष्यजी बड़े दिखेंगे। ऐसा भी नहीं कि श्लोक में से वेदान्त निकल आयेगा। यह गुरु के प्रति अभिगमन ही ‘महापुरुषसंश्रय’ है।

एक महात्मा से किसी ने पूछा- ‘महाराज ! ज्ञान कैसे होता है?’ वे बोले- ‘दीया कैसे जलता है ?’

एक दीया जल रहा है, उसे अनजले दीये से सटा दो। दूसरा भी जल जायेगा। लौ से लौ जलती है। एक महापुरुष होगा तो उसके सम्पर्क से तुम्हारे बन्धन के जो प्रतिबन्ध हैं, वे दूर हो जायेंगे। महापुरुष के शरीर में से एक ऐसी हवा निकलती है, ऐसी चांदनी छिटकती है, ऐसी सुगन्ध, ऐसा स्पर्श होता है कि हममें आनन्द की, सत्य की योग्यता अपने आप आ जाती है।

अल्प से भूमा की ओर, छोटे से बड़े की ओर जब चलने लगते हैं तब समझना चाहिए कि सबसे बड़ा जो भगवान् है वह हमें अपनी ओर खींच रहा है। यही भगवान् की कृपा की पहिचान है।

हमारे मन की ही सब बातें होती रहें, ऐसा सोचना भगवान् की कृपा नहीं है। भगवान् से जोड़ने-मिलानेवाली जो बातें हैं उनसे जब हमारा सम्बन्ध जुड़े तब उसे भगवान् की कृपा समझनी चाहिए। इस प्रकार मनुष्य होना भगवान् से जुड़ने की पहली कड़ी है, मनुष्य होकर मुमुक्षा होना दूसरी और महापुरुषसंश्रय होना तीसरी कड़ी है।

महापुरुष के साथ कोई भी सम्बन्ध हो – समझ के साथ सम्बन्ध, प्यार के साथ सम्बन्ध, शारीरिक सम्बन्ध, ये तीनों सम्बन्ध कल्याणकारी होते हैं। शंकराचार्य भगवान् के एक ऐसे शिष्य थे जिन्हें कुछ न आता था। वे पढ़े-लिखे न थे। शंकराचार्य भगवान् की लंगोटी वे धो देते, उनका कमण्डलु भरते, साथ-साथ चलते और हाथ जोड़कर खड़े रहते। एक दिन शंकराचार्य भगवान् भजन में बैठे थे। दूसरे शिष्यों ने उनकी हँसी उड़ायी। इससे उनके मन में दुःख हुआ। दुःखी हुए तो दुःखी भाव से जाकर भगवान् शंकराचार्यजी को प्रणाम किया। शंकराचार्य ने पूछा- ‘तुम कौन हो ?’ वह बोला- ‘मैं क्या जानूं कि मैं कौन हूँ !’ जब उसे कुछ नहीं सूझा तो शंकराचार्य ने उसके सिर पर हाथ रख दिया । हाथ का रखना था कि उसे तुरन्त तत्त्वज्ञान का स्फुरण हो गया। वह बोल उठा-

नाहं मनुष्यो ने च देवयक्षो, न ब्राह्मणः क्षत्रियवैश्यशूद्रः ।
न ब्रह्मचारी न गृही वनस्थो, भिक्षुर्न चाहं निजबोधरूपः ॥

अर्थात् ‘न मैं मनुष्य हूँ और न देव या यक्ष हूँ। मैं न ब्राह्मण हूँ और न क्षत्रिय, न वैश्य, न शूद्र हूँ। मैं न ब्रह्मचारी हूँ और न गृहस्थ या वानप्रस्थ हूँ। मैं संन्यासी भी नहीं हूँ। मैं तो केवल बोधस्वरूप, नित्य-शुद्ध-बुद्ध ब्रह्म हूँ।’

लोगों को देखकर आश्चर्य हो गया । महापुरुष के संश्रय की ऐसी प्रसिद्धि है।

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