आपमें से बहुत से लोगों ने यह प्रसिद्ध वाक्य सुना होगा ~ “धर्मो रक्षति रक्षितः”
यह वाक्य दो प्रमुख स्रोतों से उद्धृत हुआ है ~
एक महाभारत के वनपर्व (313/128) से और दूसरा मनुस्मृति के अष्टम अध्याय (8.15) से।
पूरा श्लोक

तस्माद् धर्मो न हन्तव्यो मा नो धर्मो हतोऽवधीत्॥
इस श्लोक का सार यह है ~
जो धर्म का नाश करता है धर्म उसका विनाश करता है;
और जो धर्म की रक्षा करता है, धर्म भी उसकी रक्षा करता है।
इसलिए धर्म का कभी नाश नहीं करना चाहिए,
कहीं ऐसा न हो कि धर्म के नाश से हम स्वयं नष्ट हो जाएँ।
धर्मयुद्ध का भाव
श्रीमद्भगवद्गीता के आरंभिक श्लोक में कुरुक्षेत्र को धर्मक्षेत्र कहा गया है —
मामकाः पाण्डवाश्चैव किमकुर्वत सञ्जय॥”
महाभारत का युद्ध धर्म की रक्षा के लिए ही लड़ा गया था।
जो पक्ष धर्म के साथ खड़ा था ~ उसकी रक्षा हुई;
जो अधर्म की ओर था ~ उसका अंत हो गया।
अंत में पांडव, जो धर्म के रक्षक थे, वही विजयी हुए।
धर्म और अधर्म का परिणाम
रामायण और महाभारत, दोनों में यह शिक्षा स्पष्ट है ~
अधर्म का परिणाम सदैव विनाश होता है।
रावण और दुर्योधन जैसे पात्रों ने धर्म को नष्ट करने की चेष्टा की,
परंतु अंततः वे स्वयं नष्ट हो गए।
वहीं श्रीराम और पांडवों ने धर्म की रक्षा की,
और धर्म ने अंततः उनकी रक्षा की।
धर्म क्या है?
“धर्म” शब्द का अर्थ केवल पूजा-पाठ नहीं है।
यह मानव जीवन का पहला और सर्वोच्च पुरुषार्थ है —
धर्म, अर्थ, काम, और मोक्ष में से धर्म को सर्वप्रथम माना गया है।
इसका तात्पर्य यह है कि धर्म का पालन करने से ही
शेष तीनों पुरुषार्थ स्वतः प्राप्त होते हैं।
धर्म का अर्थ है —
कर्तव्य, सदाचार, नैतिकता, और उचित आचरण।
जो व्यक्ति इन सिद्धांतों का पालन करता है,
वह धर्म का सच्चा रक्षक कहलाता है।
धर्म समाज की रीति, परंपरा और मूल्य व्यवस्था का आधार है।
अर्थात ~ “जो धारण करने योग्य है, वही धर्म है।”
पश्चिमी भाषाओं में धर्म का सटीक अनुवाद नहीं मिलता।
अंग्रेज़ी में इसके लिए “righteousness” या “morality” जैसे शब्द प्रयुक्त होते हैं,
पर ये केवल आंशिक अर्थ देते हैं।
सरल शब्दों में, धर्म का अर्थ है —
कर्तव्य, न्याय, सत्य, अहिंसा, और वो आचरण जिसे सभी को अपनाना चाहिए।
मुस्लिम, जैन, बौद्ध आदि धर्म नहीं, बल्कि संप्रदाय या समुदाय हैं —
क्योंकि “संप्रदाय” किसी विशेष परंपरा या मान्यता के अनुयायियों का समूह होता है।
पर “धर्म” उससे कहीं बड़ा, सार्वभौमिक सत्य है —
जो मनुष्य को मनुष्य बनाता है।
यह भी पढ़े > हिन्दू धर्म की वो 5 किताबें जो हर युवा को पढ़नी चाहिए
हमारा गौरवशाली अतीत
कभी भारत ज्ञान और अध्यात्म का केंद्र हुआ करता था।
शारदा पीठ, नालंदा, तक्षशिला, और मुल्तान विश्वविद्यालय जैसे संस्थान
विश्व के श्रेष्ठ शिक्षण केंद्रों में गिने जाते थे।
आज के ऑक्सफ़ोर्ड और कैम्ब्रिज जैसे विश्वविद्यालयों से कहीं पहले
यह भूमि विद्या की राजधानी थी।
लेकिन आज के युवाओं में शायद ही कोई हो जिसने इनके नाम सुने हों। क्यों?
क्योंकि हमने अपने धर्म और संस्कृति की रक्षा पूरी तरह नहीं की।
इतिहास में उल्लेख आता है कि जब नालंदा विश्वविद्यालय को आक्रमणकारियों ने जला दिया,
तो वहाँ का विशाल पुस्तकालय पूरे एक महीने तक जलता रहा —
इतना असीम ज्ञान उस समय भारत के पास था।
पर दुर्भाग्य से, हम उसे बचा नहीं पाए।
कुछ ही लोग थे जो धर्म और संस्कृति के लिए खड़े हुए,
परंतु उनके प्रयास उस समय की भीषण परिस्थितियों में पर्याप्त नहीं थे।
परिणामस्वरूप — धर्म और धर्मरक्षक, दोनों ही आघात झेलते रहे।
धर्म की शक्ति ~ आस्था नहीं, आचरण
धर्म का पालन करने के लिए न धन चाहिए, न सत्ता ~
बस सत्यनिष्ठा और दृढ़ इच्छाशक्ति की आवश्यकता होती है।
धर्म किसी व्यक्ति या समुदाय का बंधन नहीं,
बल्कि ऐसा कर्तव्य है जिसका पालन जीवन के अंतिम क्षण तक किया जाना चाहिए।
चलाचले च संसारे धर्म एको हि निश्चलः॥
अर्थ ●~
धन आता-जाता रहता है, जीवन भी स्थिर नहीं,
यौवन भी क्षणभंगुर है;
इस परिवर्तनशील संसार में केवल एक चीज़ अडिग है — वह है धर्म।
धर्म की रक्षा क्यों आवश्यक है?
यह प्रश्न नहीं होना चाहिए कि “धर्म की रक्षा क्यों करें?”
क्योंकि धर्म ही जीवन का आधार है।
ज़रा सोचिए :~
- यदि माँ अपने बच्चे को दूध पिलाने का धर्म छोड़ दे, क्या होगा?
- यदि सैनिक अपनी मातृभूमि की रक्षा का धर्म भूल जाए, देश बचेगा क्या?
- यदि वृक्ष छाया देने का धर्म त्याग दें, तो जीवन कैसे संभव होगा?
- यदि डॉक्टर सेवा धर्म छोड़ दे, कितने जीवन संकट में पड़ जाएँगे?
धर्म का जाति-पाति या किसी समुदाय से कोई संबंध नहीं।
यह शाश्वत सत्य है ~ जो मानवता के अस्तित्व को टिकाए रखता है।
किसी प्यासे को पानी पिलाना धर्म है;
और उसी क्षण किसी की मदद न करना अधर्म।
इसलिए मित्र, धर्म को हमेशा सर्वोपरि रखना चाहिए।
धर्म हमारी प्राथमिकता क्यों होनी चाहिए?
अर्जुन का उदाहरण इस बात को सुंदर ढंग से स्पष्ट करता है।
उसने अपने व्यक्तिगत सुख और आकर्षण से ऊपर उठकर धर्म को चुना।
जब उर्वशी ने उसे मोहित करने की कोशिश की,
तो अर्जुन ने उसे सम्मानपूर्वक “माँ समान” मानकर अस्वीकार कर दिया।
इस निर्णय ने दिखाया कि सच्चा धर्म हमेशा आत्मसंयम और मर्यादा से जुड़ा होता है।
अर्जुन को श्राप मिला, पर उसने धर्म नहीं छोड़ा —
वह इस बात का प्रमाण था कि धर्म की रक्षा में त्याग भी आवश्यक है।
रूपाभाई ~ धर्मनिष्ठा का जीवंत उदाहरण
भगवान श्री स्वामीनारायण के भक्त रूपाभाई दरबार की कथा धर्म की दृढ़ता का आदर्श उदाहरण है।
वे भावनगर राज्य में राजा वजेसंगजी के दरबार में सेवा करते थे,
और शिक्षापत्री के निष्ठावान अनुयायी थे।
राजा ने एक दिन उन्हें शिकार पर चलने को कहा,
पर रूपाभाई ने शांत स्वर में कहा — “महाराज, मेरी शिक्षापत्री में निर्दोष प्राणी की हत्या वर्जित है।”
राजा ने कहा चलो, पर शिकार मत करो।
पर जब जंगली सूअर उनके सामने आया, राजा ने आदेश दिया — “गोली चलाओ।”
रूपाभाई ने गोली तो चलाई, लेकिन आकाश की ओर।
राजा नाराज़ हुए और उन्हें नौकरी से निकाल दिया।
लेकिन समय बीता, और जब राजा को फिर उनकी जरूरत पड़ी,
उन्होंने रूपाभाई को वापस बुला लिया।
रानी की तीर्थयात्रा के दौरान भी रूपाभाई ने मर्यादा नहीं छोड़ी।
उन्होंने शिक्षापत्री के सिद्धांतों का पालन किया —
न तो उन्होंने अनुचित स्थान पर जाना स्वीकार किया,
न धर्मविरुद्ध आचरण किया।
राजा ने फिर उन्हें शराब पीने का आदेश दिया,
पर रूपाभाई ने कहा — “यह धर्म के विरुद्ध है।”
राजा पुनः अप्रसन्न हुए, लेकिन रूपाभाई अडिग रहे।
बाद में जब गाँव में शेर आतंक मचा रहा था,
तो वही राजा रूपाभाई के साहस पर भरोसा करने लगे।
भगवान स्वामीनारायण ने उन्हें स्वप्न में दर्शन देकर मार्ग बताया,
और अगले दिन रूपाभाई ने राजा की तलवार से शेर का वध किया —
धर्म की मर्यादा भंग किए बिना।
राजा ने प्रसन्न होकर उन्हें स्वर्ण मुद्रा और आजीवन वेतन दिया।
धर्म के प्रति अटूट आस्था और निष्ठा ने अंततः उन्हें सम्मान दिलाया।
निष्कर्ष
जैसे अर्जुन और रूपाभाई ने परिस्थितियाँ कैसी भी हों,
धर्म का साथ नहीं छोड़ा —
वैसे ही हमें भी अपने कर्तव्य और धर्म के प्रति अडिग रहना चाहिए।
धर्म पर कितनी भी आंधियाँ आएँ, सत्य यह है कि धर्म कभी नष्ट नहीं होता।
समय भले ही कठिन हो, पर अंततः धर्म ही विजय प्राप्त करता है।
Aur post daliye
Jai Shree Ram ❤️