करक-चतुर्थी (करवा चौथ) का व्रत भारत की प्राचीनतम परंपराओं में से एक है, जो पूर्णतः शास्त्रोक्त विधि से किया जाता है। किंतु वर्तमान में जनमानस में जो कुछ आडम्बर-रूप क्रियाएँ प्रचलित हैं—जैसे चलनी द्वारा पति अथवा चन्द्रमा-दर्शन, पति द्वारा जल-प्रदान आदि—वह शास्त्रीय प्रमाण पर आधारित नहीं हैं, बल्कि चलचित्रों और आधुनिक प्रचार के प्रभाववश प्रसारित हुए हैं।
इस व्रत की मूल कथा वामनपुराण में प्रतिपादित है, जहाँ सूतजी तथा सनकादिक-मुनियों का संवाद आता है। सूतजी वर्णन करते हैं कि जब अर्जुन ने पर्वत पर घोर तप किया, तब द्रौपदी ने अपने पतिदेव की सुरक्षा हेतु भगवान श्रीकृष्ण से प्रश्न किया। तब श्रीकृष्ण ने माता पार्वती और भगवान शंकर के संवाद का स्मरण कराया।
उस प्रसंग में पार्वतीजी के प्रश्न करने पर भगवान शंकर ने वीरावती नामक सात भाइयों की एक कन्या की कथा सुनाई। वीरावती ने अपने मायके में भाभियों के साथ यह निर्जल-व्रत आरंभ किया, किंतु चन्द्रदर्शन से पूर्व ही अचेत हो गई। यह देखकर सातों भाई शोकाकुल हो उठे। तब एक भाई ने उपाय किया—वह बरगद पर चढ़कर अग्निशलाका को गोल-गोल घुमाने लगा और अन्य भाइयों ने वीरावती के मुख पर जल का छिड़काव किया। उस अग्निदीप्ति को ‘लुका’ कहा गया और भाइयों ने उसी को चन्द्रमा के रूप में दिखा दिया। वीरावती ने उसे चन्द्रमा मानकर अर्घ्य समर्पित कर व्रत तोड़ दिया।
उस मिथ्याचार के दोषवश वीरावती के पति का निधन हो गया। तब उसने सम्पूर्ण वर्ष कठोर उपवासपूर्वक पुनः यह व्रत किया। अगले करक-चतुर्थी पर देवराज इन्द्र की धर्मपत्नी इन्द्राणी (सची देवी) स्वयं प्रकट होकर वीरावती के पतिव्रत धर्म से प्रसन्न हुईं और उसके पति को पुनर्जीवित कर दिया।
यह कथा सुन द्रौपदी ने भी यह व्रत पूर्ण विधि-विधान से किया। परिणामस्वरूप पाण्डवों को न केवल महाभारत-युद्ध में विजय प्राप्त हुई, बल्कि उनके राज्य और संपदा का पुनरुद्धार भी संभव हुआ।
करवा चौथ पूजन-विधान

इस व्रत में पीले चन्दन से एक चित्र का निर्माण कर उसके अंतर्गत बरगद-वृक्ष के अधःस्थ भगवती पार्वती, भगवान शंकर, श्रीगणेश एवं षड्मुख कार्तिकेय की प्रतिमाएँ अंकित कर उनका पूजन किया जाता है। पूजन में सर्वप्रथम देवी पार्वती का अर्चन किया जाता है।
करक (घट) में चावलादि भरकर दस ब्राह्मणों को दान करने का विधान है। शास्त्रों में रत्नादि दान की भी संस्तुति की गई है। यदि कोई सामर्थ्याभाववश रत्नादि देने में असमर्थ हो, तो वह धनराशि अथवा मूल्यवान वस्त्रादि अर्पित कर सकता है।
आडम्बर एवं भ्रांतियाँ

पति का मुख चलनी से देखना अथवा चन्द्रमा को चलनी से दर्शन करना — ये आचरण शास्त्रसम्मत नहीं हैं। इसी प्रकार पति द्वारा जल पिलाया जाना भी किसी प्राचीन ग्रंथ में निर्दिष्ट नहीं है। तथापि यदि कोई अज्ञानवश अथवा भावातिरेक से ऐसा करे, तो कोई दुष्परिणाम अथवा दोष नहीं माना गया है।
~ पंडित आदित्यनारायण पाण्डेय
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बहुत सुंदर और ज्ञानवर्धक लेख — करवा चौथ के शास्त्रीय पक्ष को सरल भाषा में समझाने के लिये धन्यवाद। पुराने प्रथाओं और मिथकों पर आपका विश्लेषण उपयोगी रहा।
Esi parkar ham se jure rahe aur post ko share kare
Jay shree ram 🙏🚩
लेख बहुत अच्छा और विस्तृत है। विशेषकर ‘आडम्बर एवं भ्रांतियाँ’ वाला हिस्सा संतुलित और तर्कसंगत लगा — चलनी/चन्द्रमा-दर्शन जैसे रिवाज़ों पर आपने जो शास्त्रीय दृष्टिकोण दिखाया, वह पढ़ने लायक है। क्या आप इसी विषय पर पुराने ग्रंथों के स्रोत भी साझा कर सकते हैं?
Very informative article — thanks for explaining the traditional rites of Karva Chauth so clearly. I appreciate the balanced treatment of myths and practices.